जम्मू-कश्‍मीर : पक्षी घर लौटेंगे ही

युगवार्ता    26-Oct-2023   
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वरिष्‍ठ पत्रकार जवाहरलाल कौल की पुस्‍तक ‘जम्मू व कश्‍मीर: मेरा आहत स्वर्ग’ केवल राजनैतिक घटनाक्रम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक विस्मृति के बारे में भी बताती है। यह पुस्तक पाठक को मर्माहत नहीं करती है, बल्कि सोचने के लिए कुछ सूझ देती है। जैसे कि नया कश्मीर कैसे पुन: बनाया जा सकता है।

जम्‍मू कश्‍मीर मेरा आहत क्या है इसमें? यह प्रश्‍न स्वयं जवाहरलाल कौल ने अपने पाठकों की सुविधा के लिए सबसे पहले उठाया है। स्वाभाविक है कि वे ही इसका उत्तर भी दे सकते हैं। जो उन्होंने दिया है, ‘यह पुस्तक केवल राजनैतिक घटनाक्रम तक ही सीमित नहीं है, यह सांस्कृतिक विस्मृति के बारे में भी है।’ यह पुस्तक कौन-सी है? यह पुस्तक है-‘जम्मू व कश्‍मीर: मेरा आहत स्वर्ग।’ इसे अनुभवी पत्रकार जवाहरलाल कौल ने लिखा है। इससे पहले इसी विषय पर उनकी पुस्तक आई थी। वह अंग्रेजी में है। उसका भी शीर्षक यही है, जो हिन्दी का है। लेकिन अंग्रेजी पुस्तक का यह अनुवाद नहीं है। इसमें हिन्दी की सुगंध है। दूसरी बात इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह यह कि कौल साहब ने अंग्रेजी की पुस्तक को कोरोना काल से पहले लिखा था। हिन्दी की पुस्तक कुछ दिन पहले छपी है। इसलिए इसमें वे बातें भी शामिल उन्होंने कर ली है, जो पुस्तक को 2023 के हिसाब से तरोताजा बनाती है। जम्मू-कश्‍मीर पर पुस्तकों की भरमार है। हर समय कोई न कोई पुस्तक छपती रहती है। इन पुस्तकों की भीड़ में ‘जम्मू व कश्‍मीर: मेरा आहत स्वर्ग’ सबसे अलग और बेहतर है।
कोई भी व्यक्ति यह जानना चाहेगा कि ऐसा क्यों है? क्या है इस पुस्तक की विशेषता? क्यों यह पुस्तक दूसरी पुस्तकों से अलग और बेहतर है? इस बात के बहुत ठोस आधार हैं। उन्हें समझने और जानने की जरूरत है। कई बातें हैं। पहली, जवाहरलाल कौल उस जम्मू-कश्‍मीर के हैं, जो अभी पराया है। वे स्कर्दू में जन्में। 1937 का साल था। वह समय भारत की गुलामी का था। लेकिन जम्मू-कश्‍मीर अखंड था। यह वर्णन लंबा हो सकता है। जिसकी यहां उतनी जरूरत नहीं है, सिर्फ समझने के लिए यह तथ्य यहां दिया जा रहा है, जिससे यह जाना जा सके कि जवाहरलाल कौल वे पत्रकार हैं, जिन्होंने अतीत के जम्मू-कश्‍मीर से अपनी जीवन यात्रा शुरू की और अपने लंबे अनुभव से उन्होंने इस पुस्तक को सांस्कृतिक विस्मृतियों को दूर करने के लक्ष्य से लिखा है। इसीलिए इसमें जो इतिहास है, वह लेखक के अनुभवों पर भी आधारित है। ऐसे लेखक दुर्लभ हो गए हैं। दूसरी, यह पुस्तक जीवन के हर आयाम को समेटे हुए हैं। तीसरी, इसमें एक गहन आशा की स्पष्‍ट किरण है। चौथी, उन राजनीतिक घटनाओं को इस पुस्तक में ऐसे ढंग से लिखा गया है कि पाठक को पढ़ते हुए एक अच्छी कहानी का आनंद आता है। पांचवीं, जम्मू-कश्मीर आहत है। यह पुस्तक बताती है। उसे कहां-कहां चोट लगी है, इसमें उसका वर्णन है। फिर भी पाठक को यह पुस्तक मर्माहत नहीं करती है, सोचने के लिए कुछ सूझ देती है। जैसे कि नया कश्मीर कैसे पुन: बनाया जा सकता है।
यह पुस्तक अपने पाठक को मनुष्‍य बनाती है। मनुष्‍य वह होता है, जिसमें निर्मल मन हो। वह अपने मन की निर्मलता से वह देख सके जो उसे देखना चाहिए। ऐसा हो जाने पर कोई समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न निकाला जा सके। इस अर्थ में यह पुस्तक जम्मू-कश्मीर के बारे में सचेत हर मनुष्‍य को समाधान का सूत्र देती है, लेकिन इसमें उपदेश नहीं है। समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में रख देने से वास्तव में समाधान की राह खुल जाती है। दरवाजे जो बंद हो गए हैं, वे अपने आप खुलने लगते हैं। यही यह पुस्तक कर रही है। क्या जवाहरलाल कौल ने इन बातों को बताने के लिए पुस्तक लिखी है? वे ऐसा नहीं कहते। एक घटना ने उन्हें अंदर से इतना हिला दिया कि वे अपने को रोक नहीं सके और लिखना शुरू कर दिया। पहले उस घटना के बारे में पढ़िए, ‘तीन साल पहले कश्मीर के एक छोटे से गांव का एक युवक मेरे दिल्ली के फ्लैट पर मिलने आया। पहले भी कई बार आ चुका था, लेकिन इस बार कुछ व्याकुल दिख रहा था। मैंने कारण पूछा तो बोला कि उसके भाई को नशे की लत लग गई है और अब उसकी हालत बहुत खराब है। मैंने पूछा कि उसे किसी अस्पताल या नशा निवारण केंद्र में भर्ती क्यों नहीं करते तो बोला हमने प्रयास किया था लेकिन दो सप्ताह के भीतर ही वह केंद्र से भाग जाता था, घर वालों ने रोगी को किसी बेहतर रोग निवारण केंद्र में भर्ती कराना चाहा जहां इलाज भी अच्छा हो और सुरक्षा भी बेहतर हो तो रोगी ने जाने से मना कर दिया। उसने धमकी दी कि अगर उसे जबरदस्ती भर्ती कराने की कोशिश की गई तो वह आत्महत्या कर लेगा। इस तरह वह अपने असहाय बूढ़े माता-पिता के सामने जान बूझकर रिसरिस कर मर रहा है। ‘बहुत दर्दनाक है। मेरे मुंह से निकला।’
इस घटना से यह पुस्तक बनी है। कौल साहब ने छानबीन की, तो पाया कि यह किसी एक युवक की कहानी नहीं है, ‘यह तो एक महामारी है जो दबे पांव हमारे युवकों और युवतियों को धीरे-धीरे उनकी असामयिक मौत की ओर धकेलने का महासंकट पैदा कर रही है।’ उनके मन में अनेक प्रश्न उठे। क्या इस स्थिति के लिए शस्त्र संस्कृति आदि की भी कोई भूमिका है? उन्होंने इसे अपने लिए एक चुनौती माना और परिणामस्वरूप यह पुस्तक एक समाधान के रूप में आ सकी। जम्मू-कश्मीर पर ज्यादातर पुस्तकें शेख अब्दुल्ला की राजनीति के ककहरे से शुरू होती है। यह पुस्तक सईद जमालुद्दीन अफगानी से शुरू होती है। क्या इस पात्र को किसी पुस्तक में हम पाते हैं? इसका उत्तर नकारात्मक मिलेगा। यह पात्र प्रतीक है। उस त्रासदी का प्रतीक है, जिससे आज जम्मू-कश्मीर त्रस्त है। उसी कड़ी में था, खिलाफत आंदोलन। इस नाम से शायद ही कोई अपरिचित हो।
वह परिचय इस पुस्तक से यथार्थपरक बनता है। इसके लिए इन पंक्तियों को पढ़ना चाहिए, ‘महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में खिलाफत की सहायता के लिए आंदोलन तब शुरू हुआ जब खिलाफत की जंग लगभग समाप्त हो चुकी थी और ओटोमन साम्राज्य की राजधानी एक राष्‍ट्रवादी आंदोलन की राजधानी में बदल गई थी।’ इसे पढ़कर खिलाफत आंदोलन एक पहेलीनुमा इतिहास बन जाता है। यहां पाठक थोड़ी देर के लिए रुकेगा। इसलिए क्योंकि इतिहास के इस तथ्य से ज्यादातर लोग अनजान हैं। वे नायक भ्रम में थे। प्रसंगवश जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास और उसके खास-खास नायकों का इस पुस्तक में वर्णन है, लेकिन उससे जो आख्यान निकलता है वह इस्लाम में मंथन का जितना है, उससे अधिक भ्रमित धाराओं के संकेत भी है। इस्लाम की कौन-कौन सी धाराएं तब सक्रिय थीं, इस दृष्टि से जम्मू-कश्मीर के इतिहास को कोई पुस्तक नहीं बताती। यह कार्य अपनी पुस्तक से कौल साहब ने किया है। कैसे नेशनल कांफ्रेस का जन्म हुआ और जहां मुहम्मद अली जिन्ना की चाल विफल रही। लेकिन शेख अब्दुला दिखाने के लिए तो पंडित नेहरू के करीब थे, परंतु वे वास्तव में वामपंथी एजेंडे को चला रहे थे। इसी एजेंडे में शेख अब्दुला ने महाराजा हरि सिंह के विरूद्ध षडयंत्र रचे।
“प्रसंगवश जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास और उसके खास-खास नायकों का इस पुस्तक में वर्णन है, लेकिन उससे जो आख्यान निकलता है वह इस्लाम में मंथन का जितना है, उससे अधिक भ्रमित धाराओं के संकेत भी है। इस्लाम की कौन-कौन सी धाराएं तब सक्रिय थीं, इस दृष्टि से जम्मू-कश्मीर के इतिहास को कोई पुस्तक नहीं बताती।”
शेख अब्दुला के षडयंत्रकारी किस्से इस पुस्तक के आठवें अध्याय में हैं। इसी अध्याय में यह वर्णन भी है कि कांग्रेस नेतृत्व जिस ब्रिटिश लेबर पार्टी को भारत का हमदर्द मानती थी, उसके ज्यादातर सांसद ‘यह नहीं चाहते थे कि कश्मीर भारत के साथ मिले।’ इसी नीति पर अमल उस समय ‘भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के सर्वोंच्च सेनापति ओकिनलेक एवं भारतीय सेनाओं के प्रधान सेनापति जनरल लॉकहार्ट सरीखे अधिकारी’ कर रहे थे। जिसमें लार्ड माउंटबेटन का इशारा था। इसी कारण महाराजा हरि सिंह के कश्मीर बचाने के प्रयासों को टाला जा रहा था। कबाइलियों के जरिए पाकिस्तानी आक्रमण को विफल किया जा सकता था। कैसे मुहम्मद मकबूल शेरवानी बारामुला में अपनी जान पर खेल कर आक्रमणकारियों को रोका। ऐसी खास-खास घटनाओं का वर्णन इस अध्याय में है।
यह पुस्तक 17 अध्यायों में है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज भी हैं। इन अध्यायों में ‘द ग्रेट गिलगित गेम’, ‘कश्मीर में शेख का शासन’, ‘पतन की ओर पांच कदम’, ‘दबे पांव किया आतंक ने प्रवेश’, ‘घायल कश्मीर और कश्‍मीरियत’, ‘अनुच्छेद 370 का जन्म और अंत’, ‘आओ एक नया स्वर्ग बनाएं’ और ‘गिलगित गेम का नया रूप।’ इनमें एक इतिहास दृष्टि है। जिससे आज के जम्मू-कश्मीर को ऐतिहासिक संदर्भ में समझा जा सकता है। यह पुस्तक 304 पन्नों की है। इसका उल्लेख करने का एक प्रयोजन है। वह यह कि इसे कम समय में पढ़ा जा सकता है। घायल कश्मीर और कश्‍मीरियत में वह तथ्य है कि कैसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ हुआ है। इसमें कश्‍मीरी भाषा की करुण कहानी भी है। अफसोस इस पर होना चाहिए कि कश्‍मीरी भाषा उपेक्षित है। कितनी? इसे ये वाक्य समझाते हैं, ‘जम्मू-कश्मीर के नगरों में अधिकतर युवा कश्‍मीरी नहीं बोलते। विश्‍वविद्यालयों में कश्‍मीरी बोलने का चलन ही समाप्त हो गया है।’
संविधान का अनुच्छेद 370 बहुचर्चित है। इसके इतिहास और दुष्‍परिणाम से शायद ही किसी का अपरिचय हो। फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जो अभी भी अज्ञात हैं। कौल साहब ने इस पुस्तक के 15वें अध्याय में ऐसी ही अज्ञात-सी बातों को सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘2019 में 5 अगस्त को भारत के राष्‍ट्रपति ने एक आदेश जारी किया, जिससे उनके सारे पुराने आदेश निरस्त हो जाते हैं।’ इसे इस वाक्य से जोड़कर पूरी बात समझी जा सकती है, ‘1954 के आदेश के आधार पर ही अनुच्छेद 35ए अस्तित्व में आया था। राष्‍ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया जिसके कारण एक को छोड़कर 370 के सारे अनुबंधों को निरस्त कर दिया गया जिससे यह अनुच्छेद निष्क्रिय हो गया।’ इससे स्पष्‍ट होता है कि संविधान के साथ उस समय पंडित नेहरू ने छेड़छाड़ की। राष्‍ट्रपति का आदेश जारी कराया। उसे अनुच्छेद 35ए कहा गया। लेकिन अनुच्छेद 370 की आत्मा तो उस आदेश में थी। वही समस्या की जड़ थी। यह तथ्य अब तक छिपाया जाता रहा है। नई पीढ़ी को यह जानना चाहिए। इसे चिंहित करने के कारण भी यह पुस्तक ऊंचे पायदान पर पहुंच जाती है।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।