विलक्षण राजनेता-आचार्य जे.बी. कृपलानी

युगवार्ता    24-Nov-2023   
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आजादी से पहले आचार्य जे.बी. कृपलानी जी ने गांधीजी के राजनीतिक और रचनात्मक दोनों प्रकार के कार्यों को आगे बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने असयोग आंदोलन में काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय में पढ़ाने का कार्य छोड़ा और श्री गांधी आश्रम की स्थापना कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में खादी को स्वाधीनता संग्राम का बाना बना दिया।

 
JB KRIPLANI
 
आचार्य जे.बी. कृपलानी के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका पुण्य स्मरण कर यह बताया है कि देश उस महान स्वाधीनता सेनानी से प्रेरणा लें। वे 11 नवंबर, 1888 को अखंड भारत के सिंध प्रांत के हैदराबाद नगर में जन्मे। करीब एक सदी का उनका जीवन है। यह आचार्य जे.बी. कृपलानी का 135वां जन्म साल है। वे 41 साल पहले तक भारतीय जन-जीवन में सक्रिय भूमिका निभाते रहे। अपने लंबे जीवन के प्रारंभ में ही वे महात्मा गांधी के सहयोगी बने। उनके त्यागमय जीवन का वह प्रारंभ था। वे क्रांतिकारी तो पहले से ही थे, लेकिन महात्मा गांधी जब चंपारन पहुंचे और सत्याग्रह की आवाज लगाई, तो आचार्य जे.बी. कृपलानी ने अपनी प्राध्यापकी छोड़ी और स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के सहयोगी बनने का फैसला किया। महात्मा गांधी ने भी उन्हें अपनाया। जब वे आज के मुंबई में बीए के विद्यार्थी थे, तब एक घटना से उनमें राजनीतिक चेतना जगी।

आचार्य जे.बी. कृपलानी ने अपने संस्मरण में उस घटना का विवरण दिया है। वह मार्मिक है, ‘एक दिन अनमने भाव से ही मैंने अपने रूममेट की पत्रिका पलटनी शुरू की और यह इतनी जबरदस्त लगी कि अंत तक पढ़े बगैर मैं इसे छोड़ सका। यह पत्रिका थी बिपिन चंद्र पाल के संपादन में निकलने वालीन्यू इंडिया इसके बाद मैं इसे नियमित रूप से पढ़ने लगा और बाद में इसका ग्राहक भी बन गया। इससे पहले मैंने किसी महान राष्‍ट्रभक्त के बारे में नहीं सुना था। यह साप्ताहिक हर हफ्ते हमारी गुलामी, राष्‍ट्र के रूप में हमारे अपमान, यहां से संपदा की लूट, हमारे विदेशी मालिकों के फायदे के लिए देश के उद्योग-धंधों की बरबादी पर लिखा करता था। बिपिन चंद्र पाल बहुत ही जोर-शोर से मुल्क की आजादी की वकालत और उसको पाने के तरीकों का जिक्र करते थे; पर अभीस्वराजशब्द प्रचलन में नहीं आया था। पत्रिका के संपादक और लेखक इतनी तार्किक और दमदार बातें लिखते थे कि वह हमारे दिमाग में ही नहीं, दिल में भी बैठ जाती थीं। विदेशी शासकों से हम किस प्रकार अपमानित हो रहे हैं, वे कैसे हमें लूट रहे हैं, इस बारे में मेरी आंखें खुलती जा रही थीं। विदेशी किस्म की शिक्षा हमारी आंखों पर पट्टी डाले हुई थी। मैंने फिर से अपना इतिहास और राष्‍ट्रीय साहित्य पढ़ना शुरू किया, तब बंगाल का विभाजन होने वाला था और उसके खिलाफ काफी कुछ लिखा जा रहा था।

इस घटना ने उन्हें बदला। वे क्रांति के रास्ते पर चल पड़े। लेकिन जो प्रो. कृपलानी अहिंसा से दूर थे, वे कैसे महात्मा गांधी के सहयोगी बने? यह प्रश्‍न अवश्‍य किसी के भी मन में उठेगा। इसका उत्तर खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है, खुद उन्होंने ही उस घटना का विवरण लिखा है जो घटी। जिससे वे महात्मा गांधी के साथ जुड़े। बात 1915 की है। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से गए थे। रवींद्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन में मेहमान थे। यह सूचना पाकर कृपलानी जी उनसे मिलने गए। भेंट हुई। लेकिन दूरी बनी रही, क्योंकि उन्हेंभरोसा नहीं हो रहा था कि यह आदमी (गांधीजी) इतिहास में एक नया और क्रांतिकारी अध्याय लिखने जा रहा है।फिर भी वे गांधीजी से जुड़े।

वे पहले राजनीतिक व्यक्ति हैं, जो भारत में गांधीजी के आने के बाद उनसे मिले। जब कभी इसका प्रसंग आया कि उनका गांधीजी से संबंध का प्रकार क्या है, तो कृपलानी जी ने हमेशा एक ही बात कही कि मेरा संबंध राजनीतिक है। दूसरे नेताओं से वे इस मायने में बिल्कुल अलग थे। कांग्रेस के दूसरे नेताओं ने गांधीजी से कुछ हासिल किया। पद और प्रतिष्‍ठा। आचार्य जे.बी. कृपलानी पद प्राप्त करने के लिए गांधीजी से नहीं जुड़े थे। उनका लक्ष्य था, भारत की स्वतंत्रता और स्वतंत्र भारत की पुनर्रचना। आजादी से पहले कृपलानी जी ने गांधीजी के राजनीतिक और रचनात्मक दोनों प्रकार के कार्यों को आगे बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने असयोग आंदोलन में काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय में पढ़ाने का कार्य छोड़ा और श्री गांधी आश्रम की स्थापना कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में खादी को स्वाधीनता संग्राम का बाना बना दिया।

वे उन अग्रणी नेताओं में से एक थे, जो हर निर्णायक मोड़ के साक्षी बने। कम लोग याद कर सकेंगे, लेकिन यह याद रखने जैसी बात है कि आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस का जब महासचिव पद संभाला तो उसका एक स्थाई कार्यालय बनवाया। उससे पहले कांग्रेस का कार्यालय अपने अध्यक्ष के यहां से चलता था। लेकिन 1934 से कांग्रेस कार्यालय इलाहाबाद में रहा। आजादी के बाद वह दिल्ली आया। कृपलानी जी कांग्रेस के सबसे लंबे समय तक महासचिव थे, 1934 से 1946 तक। अंतरिम सरकार बनने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा। नए अध्यक्ष आचार्य कृपलानी बने। वह समय उथल-पुथल का था। भारत का विभाजन और मुस्लिम लीग के हिंसक उत्पाद के दिनों में वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन वही समय है, जब कांग्रेस की महासमिति में उन्होंने महात्मा गांधी से अपनी घोर असहमति प्रकट की। कहते हैं कि यह बात गांधीजी को भी नागवार गुजरी। लेकिन कृपलानी थे ही ऐसे। वे अपना विचार और अपनी भावना को प्रकट करने में हिचकते नहीं थे। उन्होंने कांग्रेस के निर्णय से भी असहमति प्रकट की थी। इस तरह भारत विभाजन के वे विरोध में खड़े हुए। लेकिन वे अकेली आवाज थी। रवींद्रनाथ ठाकुर की लाइन उन्होंने अपनाई और एकला चलो की राह पर बने रहे और आजीवन चलते रहे।

आचार्य कृपलानी ने पंडित नेहरू और सरदार पटेल की कार्यशैली से असहमति के कारण कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ा। लेकिन वे महात्मा गांधी के पक्के सहयोगी बने रहे। भारत विभाजन का दोषी कौन है? यह ऐसा प्रश्‍न है, जो अभी तक अनुत्तरित है। कांग्रेस के बड़े नेता और अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद ने एक किताब अपने संस्मरणों से बनाई है। वह है, इंडिया विन्स फ्रीडम। इसमें उन्होंने हर बात के लिए सरदार पटेल को दोषी ठहराया है। लेकिन आचार्य कृपलानी ने मौलना आजाद के दावे को सही नहीं माना है। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि मौलाना का हमला सही नहीं है। कृपलानी जी ने लिखा है, ‘मैंने मौलाना की आलोचना से सरदार को बचाने की कोशिश की है। उनमें कोई दोष हो, ऐसा नहीं है, पर मौलाना का हमला सही नहीं है। मैंने सिर्फ ऐतिहासिक रिकार्ड को सही करने की कोशिश की है। पर मौलाना ने जो कुछ लिखा है, उससे यह धारणा बनती है कि सरदार अगर मुसलमानों के दुश्‍मन नहीं तो दिल से सांप्रदायिक व्यक्ति तो थे ही, जबकि यह सच्चाई नहीं है।

आचार्य जे.बी. कृपलानी के जीवन को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में देखा जा सकता है। पहला हिस्सा है, जब वे स्वाधीनता सेनानी हैं और महात्मा गांधी के बहुत करीबी सहयोगी हैं। गांधीजी ने भी उनको अपनी एक भुजा बताया था। गांधीजी अपनी दूसरी भुजा सरदार पटेल को मानते थे। दूसरा हिस्सा है, पंडित जवाहरलाल नेहरू की रीति-नीति से असहमति का। इसी दौर में कृपलानी जी ने विपक्ष की राजनीति का नेतृत्व किया। लेकिन समाजवादी नेताओं की आपसी कलह से वे इस नतीजे पर पहुंचे कि उन्हें परमात्मा ने दलीय राजनीति के लिए बनाया नहीं है। इसी से उनके जीवन का तीसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय शुरू हुआ। उन्होंने जहां आजादी के आंदोलन को देखा था और उसमें अग्रणी भूमिका निभाई थी, वहीं तीसरे हिस्से में लोकतंत्र की बहाली के संघर्ष का नेतृत्व किया। जेपी की तरह उन्हें इंदिरा गांधी ने जेल में नहीं डाला। अगर वे गिरफ्तार किए जाते और बंदी जीवन उन्हें अपनाना पड़ता तो वे उसके लिए भी तैयार थे। इमरजेंसी के दिनों में उन्होंने उसी तरह सच को उजागर किया जैसा वे पहले भी करते रहे। आखिरकार इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने का विचार बनाया। यह विचार इसलिए नहीं था कि वे लोकतांत्रिक हो गई थीं। इसलिए उन्होंने चुनाव करवाया कि इमरजेंसी पर जनता मोहर लगा दे। आचार्य जे.बी. कृपलानी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्वद्वय ने इंदिरा गांधी के सपने को चूर-चूर कर दिया। लोकतंत्र लौटा और जनता पार्टी की सरकार बनी। जेपी तो नहीं रहे, लेकिन आचार्य जे.बी. कृपलानी ने जनता पार्टी के पराभव और विघटन की त्रासदी भी देखी। ऐसे विलक्षण राजनेता थे, आचार्य जे.बी. कृपलानी।

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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।