महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म होने से बढ़ जायेगी अर्थव्यवस्था

युगवार्ता    05-May-2023   
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हर क्षेत्र की तरह कृषि में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, यदि इस तरह के भेदभाव को खत्म कर दिया जाये तो इससे विश्व अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ जायेगा और वैश्विक रूप से लोगों को खाद्य असुरक्षा से बचाया जा सकता है। एफएओ की हालिया रिपोर्ट तो यही कह रही है, पर सवाल है कैसे?

mahila kisan 

आने वाले समय में 345 मिलियन लोग खाद्य असुरक्षा में फंस सकते हैं, जिन्हें बचाया जा सकता है, अगर कृषि क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले भेद-भाव को खत्म करने का प्रयास किया जाए। इसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था का आकार भी बढ़ जाएगा। हालिया आयी एफएओ की रिपोर्ट यही बता रही है। यूएन की संस्था एफएओ यानी खाद्य और कृषि संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि कृषि उत्पादन में लैंगिक असमानता को खत्म करके और वेतन के अंतर को कम करके वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद को 01 फीसदी तक बढ़ा सकते हैं, जो आर्थिक रूप से 01 ट्रिलियन डॉलर का होगा।
हाल ही में एफएओ ने महिलाओं पर ‘द स्टेटस आॅफ वूमेन इन एग्रीफूड सिस्टम’ रिपोर्ट जारी की है। साथ ही कहा है कि 2022 की अपेक्षा दोगुने से ज्यादा लोग इस वर्ष भूख से पीड़ित हो सकते हैं, क्योंकि इस दौरान हम जबरदस्त सूखा, एक्सपोर्ट बैन, रूस-यूक्रेन युद्ध और कोरोना आपदा से निपट रहे हैं। एफएओ की रिपोर्ट में सुझाव है कि महिलाओं को कृषि योग्य भूमि पर मालिकाना हक मिले, बच्चों की सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा को बढ़ाया जाना चाहिए, जिससे महिलाओं को कृषि क्षेत्र में रोजगार मिल सकेगा। बहुत से देशों में कृषि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की जीविका के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। जैसे उप-सहारा अफ्रीका की 66 फीसदी महिलाएं कृषि में लगी हैं, जबकि 60 फीसदी पुरुष लगे हुये हैं। इसी तरह दक्षिणी एशिया में 71 फीसदी महिलाएं और 47 फीसदी पुरुष खेती से अपना रोजगार कमा रहे हैं। इसलिए अगर महिलाओं को अपने इस क्षेत्र में मालिकाना हक के साथ-साथ उचित मजदूरी भी मिले, तो किसी भी देश का भविष्य बदल सकता है, इस रिपोर्ट का बस इतना ही निष्कर्ष है।
कृषि में महिलाओं की भागीदारी से कितना भी हम आंख मूंदे रहें, पर कमोवेश हमारे देश में भी यही हाल है। अन्य क्षेत्रों की तरह खेती भी ऐसा ही क्षेत्र जहां महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। इसे आंकड़ों की भाषा में हम देख समझ सकते हैं। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एक हेक्टेयर खेत में एक वर्ष में एक जोड़ी बैल 1,064 घंटे, पुरुष 1,212 घंटे एवं एक महिला 3,485 घंटे काम करती हैं, यानी खेतों में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं लगभग तिगुना काम करती हैं। खेत में अन्न उगाने की प्रक्रिया में उन्नत बीजों का संग्रह, बीज बोना और खाद डालना, चिड़ियों को खेत से उड़ाना, पौध रोपना, पौध तैयार करना, खरपतवार निकालना, कीट का नाश करना, फसल काटना, बीज निकालना, बीज की सफाई, अनाज का भंडारण और वर्ष भर संरक्षण ये सभी ऐसे कार्य हैं जिन्हें महिलाएं बड़े धैर्य, लगन से करती आई हैं। यह देखकर समझा जा सकता है कि खेती से जुड़ा हर काम महिलाएं पूरे लगन से करती हैं और साल भर इसी में व्यस्त रहती हैं। खेती के इस काम के साथ-साथ हर महिला की तरह वे घर की जिम्मेदारियां भी उसी तरह से निभाती हैं जैसा प्रत्येक घर में रहने वाली महिलाएं करती हैं।
आदिकाल से कृषि में महिलाओं का ही दखल रहा है। जब पुरुष मुख्य खाद्य-पदार्थ की खोज में शिकार के लिए जाते थे, तब महिलाएं ही जंगलों से वनस्पतियों के रूप में खाने योग्य फल-फूल इकट्ठा करती थीं। इसी अनुभव ने आगे उन्हें खेती के हुनर में माहिर बना डाला। यही कारण है कि विश्व में खेती के काम में आज भी 60 से 80 फीसदी महिलाएं संलग्न हैं। एफएओ अपनी कई रिपोर्ट में यह बता चुका है कि विश्व के खाद्य पदार्थ का 50 फीसदी हिस्सा महिलाओं द्वारा उगाया जाता है। विश्व के कृषि कार्यों का 45 फीसदी कार्य शक्ति महिलाओं के हाथों में ही है। अफ्रीका और एशिया की कृषक महिलाएं एक हफ्ते में पुरुषों के मुकाबले 12-13 घंटे अधिक काम करती हैं।
इन आंकड़ों के मद्देनजर जब एफएओ की रिपोर्ट यह बताती है कि वैश्विक रूप से कृषि 36 फीसदी कामकाजी महिलाओं को कृषि में रोजगार मिला हुआ है। जबकि 38 फीसदी कामकाजी पुरुषों को कृषि में रोजगार मिलता है। रिपोर्ट के अनुसार महिला और पुरुष दोनों का कृषि में रोजगार की दर 2005 के बाद गिर रही है। इसके कई कारण बताए गये हैं। इसी तरह जेंडर गैप का असर कृषि उत्पादकता पर भी दिखता है। एक ही तरह के कृषि टुकड़े पर महिला और पुरुष की उत्पादकता में 24 फीसदी का अंतर देखा गया है। इसी तरह कृषि से संबंधित एक ही तरह के काम के लिए मिलने वाली मजदूरी में अंतर 18.4 फीसदी का है। यानी एक ही तरह के काम के लिए एक रुपये के मुकाबले महिला को कुल जमा 82 पैसे ही मिलते हैं। इस तरह के तमाम भेदभावों का सामूहिक परिणाम महिलाओं के पिछड़ेपन के रूप में दिखता है। इसका परिणाम परिवार के पिछड़ेपन और कुपोषण के रूप में आगे देखा जाता है। इसीलिए रिपोर्ट कहती है कि इस तरह की तमाम तरह के अंतर या गैप को भरने का काम किया जाये, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 81.6 लाख करोड़ रुपये का फायदा होगा।
खेतों में दिन-रात खटने वाली महिलाओं के पास खुद का जमीन का एक टुकड़ा न होना, किसी भी समाज के पितृसत्तात्मक रूप को ही दिखाती है। इसको एक महिला किसान के अतिरिक्त कौन समझ सकता है। संस्था वर्ल्डवाच की माने तो देश के खाद्यान्न का 60-80 प्रतिशत उपज उगाने वाली महिलाओं के नाम पर सिर्फ 02 प्रतिशत जमीन है। वहीं विकासशील देशों में महिलाओं के पास 20 प्रतिशत से भी कम कृषि योग्य भूमि है। एफएओ की रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है कि महिलाओं को कृषि योग्य भूमि पर मालिकाना हक दिया जाये। देश में महिलाओं को खेतों में दिन-रात काम करने के बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिला है। महिला किसान अधिकार मंच बहुत समय से भूमि पर अपने अधिकारों की मांग कर रहा है। उनका कहना है कि जब तक महिलाओं का नाम जमीन और कृषि से जुड़े दस्तावेज में नहीं होगा, तब तक उन्हें कैसे कानूनी रूप से किसान होने के सारे लाभ मिल पाएंगे। उनकी यह मांग है कि सभी कृषि योजनाओं पर खर्च होने वाले धन का आधा हिस्सा महिला किसानों पर खर्च किया जाए और कृषि कार्य के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं को बीमा के दायरे में लाया जाए।
वास्तव में ऐसे बहुत से सुधार और सामाजिक सुरक्षा की जरूरत है जिससे महिलाएं कृषि क्षेत्र को और अधिक मजबूत बना सके। देश में कामकाजी महिलाओं का एक बड़ा भाग कृषि उत्पादकता में जुटा हुआ है, जबकि उन्हें पूरी मजदूरी और दाम नहीं मिलता है। किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती है। आज भी देश की 68.8 फीसदी जनसंख्या कृषि के कामों में लगी हुई है। 2015 से संचालित किसान पोर्टल की माने तो देश की जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 16 फीसदी है, वहीं देश के रोजगार में लगभग 52 फीसदी योगदान कृषि का ही है। तो फिर इस प्रश्न पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि रोजगार के इतने बड़े क्षेत्र में लगी आधी अबादी को क्योंकर उपेक्षित छोड़ा जाना चाहिए। इस रिपोर्ट के आईने में हमें अपनी स्थिति के बारे में शीध्र समीक्षा करनी चाहिए।
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प्रतिभा कुशवाहा

प्रतिभा कुशवाहा, मुख्‍य कॉपी संपादक

जीवन में स्वतंत्रता और उत्सुकता के लिए पत्रकारिता का रास्ता चुना। हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका पाखी से की गई शुरुआत ने पत्रकारिता के क्षेत्र में बेहतर मार्ग दिखाया। काफी उतार-चढ़ाव के बाद भी पत्रकारिता की यात्रा अनवरत जारी। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह की पत्रिका ‘युगवार्ता’ पाक्षिक के मुख्‍य कॉपी संपादक हैं।