लेखक का अंतर्द्वंद्व

युगवार्ता    10-Jun-2023   
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मोहन राकेश: अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान जीवनी है या कुछ और, कहना मुश्किल है। इसे प्रकाशक ने जीवनी कहा है, और इस किताब के लेखक जयदेव तनेजा हलफनामा दे रहे हैं कि मुझे नहीं पता, पाठक-समीक्षक इस पुस्तक को किस विधा के अंतर्गत रखना चाहेंगे। मेरी दृष्टि से तो इसमें आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, साक्षात्कार, इतिहास, आत्मालोचना और किसी हद तक नाटक एवं कथा-विधाओं के कई तत्व गड्डमड्ड रूप में समाहित हो गये हैं।
 
मोहन राकेश : अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान
मोहन राकेश: अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान जीवनी है या कुछ और, कहना मुश्किल है। इसे प्रकाशक ने जीवनी कहा है, और इस किताब के लेखक जयदेव तनेजा हलफनामा दे रहे हैं कि मुझे नहीं पता, पाठक-समीक्षक इस पुस्तक को किस विधा के अंतर्गत रखना चाहेंगे। मेरी दृष्टि से तो इसमें आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, साक्षात्कार, इतिहास, आत्मालोचना और किसी हद तक नाटक एवं कथा-विधाओं के कई तत्व गड्डमड्ड रूप में समाहित हो गये हैं। मैंने इस पुस्तक के माध्यम से आधुनिक हिंदी साहित्य और रंगकर्म के सम्मोहक किंतु विवादास्पद मिथक पुरुष के व्यक्तित्व के रहस्यमय नेपथ्य-लोक में, उन्हीं की रचनाओं के आलोक में, अंतर्यात्रा करने का प्रयास किया है।
सच यह है कि जयदेव तनेजा मोहन राकेश के प्रेम-प्रसंगों का एक कोलाज भर प्रस्तुत करते हैं, जिसकी पठनीयता का उन्हें ख़्यााल है। जीवनी लेखन के लिए जिस संतुलन की जरूरत थी, वह मोहन राकेश के प्रति अतिशय अनुराग के कारण संभव नहीं हो सकी। पश्चिम के ज्यादातर जीवनी लेखक स्वतंत्र विद्वान होते हैं, जबकि हमारे यहां हिंदी में ज्यादातर अकादमिक व्यक्ति ही जीवनी लेखन करते हैं। इस कारण किताब और जिस व्यक्ति की जीवनी लिखी जा रही होती है, उन दोनों की विश्वसनीयता दाँव पर लग जाती है। अब यहीं इसी हलफनामे में तनेजा जी 'परिवेश' के एक अंश के अंत में कहते हैं कि किसी साहब मिजाज दोस्त ने राकेश के परेशानियों का हल बताया कि सिर्फ दो चीजों से तुम्हारा इलाज हो सकता है- एक नर्व टॉनिक, दूसरे स्त्री का शरीर। परिवेश में चींटियों की पंक्तियाँ : जमीन से कागजों तक शीर्षक लेख के अंत में कहते हैं 'दो दुर्घटनाएँ लगभग साथ-साथ हुईं। पहले विभाजन, फिर दिव्या की मृत्यु। पहली ने परिवेश से उखाड़कर फेंक दिया। दूसरी ने उखड़ने के अहसास को बहुत गहरा बना दिया।' शायद राकेश कभी इन दो घटनाओं से कभी मुक्त नहीं हो सके। आजीवन घर बदलते रहे और स्थायित्व की तलाश में किसी भी पत्नी के साथ स्थिरता की मन:स्थिति पर पहुँच सके। राकेश उसी लेख में आगे कहते हैं कि पेंडुलम के दो छोर! सचाई शायद दोनों में थी, या शायद दोनों में नहीं थी।
पुस्तक : मोहन राकेश : अधूरे रिश्तों की पूरी दास्तान
लेखक : जयदेव तनेजा
प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य : 499 रुपये
 
बौद्धिक रूप से जितने सजग और संवेदनशील मोहन राकेश रहे हैं, व्यक्तिगत जीवन में थोड़े उलझे रहे हैं। सोलह साल की उम्र में पिता के खोने के बाद उन्हें असमय पूरे परिवार को साथ लेकर चलने की जिम्मदारी लेनी पड़ी थी। उस वक्त उनका सारा भावनात्मक जुड़ाव माँ में सिमट गया, जो आजीवन बना रहा। शायद यह भी एक कारण रहा हो कि अपनी माँ की मृत्यु के बाद वे अपने को बचा नहीं पाए और 3 दिसंबर 1972 को महज सैतालिस साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। अपने माँ के बारे में यह कहने वाले राकेश 'मैंने आज तक के अपने जीवन में जिस सबसे महान व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त किया है, वह मेरी माँ है', के रिश्ते तीनों पत्नियों के साथ तल्ख रहे। तीसरी पत्नी जिनके साथ उन्होंने गंधर्व विवाह किया और आजीवन साथ रहे, वह वैवाहिक जीवन का लंबा समय है। इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि बाकी दोनों पत्नियों के छोड़ने का निर्णय राकेश ने लिया था, न कि उनकी पत्नियों ने, कारण जो भी रहा हो। मोहन राकेश संबंधों को लेकर ईमानदार रहे और अपने मन के निर्णय को हमेशा सर्वोपरि रखा। वे अपने बच्चों के साथ हमेशा सहज और संवेदनशील दिखते हैं, ऐसी सहजता तीनों पत्नियों में से किसी को नहीं मिली। राकेश की जिंदगी में अम्मा यानी माँ की जो अहमियत रही है, उसका विश्लेषण भी इस किताब में नहीं है।
नि:संदेह यह किताब गहरे अनुराग भाव के साथ लिखी गयी है, जिस कारण मोहन राकेश जैसे सचेत आधुनिक साहित्यकार के व्यक्तित्व और साहित्यिक उपलब्धि का विश्लेषण संभव नहीं हो सका। लेकिन एक पाठक और शोध-छात्र के लिए यह किताब संभावनाओं के अनेक द्वार खोलती है। जीवनी लेखन के लिए यह एक तथ्य की तरह है कि जीवनी में तिथिवार वर्णन की जरूरत नहीं होती, हमें यह समझने की जरूरत है कि इतिहास एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को आकार प्रदान करता है और बाद में व्यक्ति उसे आकार प्रदान करता है। ऐसा मोहन राकेश के इस जीवनी में नहीं हो सका है। उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की बुनावट, बनावट और विश्रृंखल स्वभाव की संबद्धता के सूत्र तलाशे जाने हैं, इसकी ईमानदार कोशिश जयदेव तनेजा ने जरूर की है। मोहन राकेश ने खुद अपने बारे लिखा था कि प्रयत्न का अपना एक सुख था कि शायद कोई कोण ऐसा हो जिससे किसी क्षण, उस क्षण-भर के लिए, पूरे को एक साथ देखा जा सके।
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मनोज मोहन

मनोज मोहन, वरिष्‍ठ पत्रकार व लेखक
एक गैर सरकारी संगठन में थोड़े दिनों तक नौकरी। हिन्दी के साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया में निरंतर सक्रिय। कविता और लेखन में गंभीर रुचि। पिछले बीस साल से दिल्ली में। वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका 'प्रतिमान : समय समाज संस्कृति' के सहायक संपादक। पिछलेे पांच सालों से युगवार्ता पत्रिका में नियमित लिख रहे हैं।