कर्तव्य-पथ एवं सेवा-पथ के प्रतीक

युगवार्ता    05-Jun-2023   
Total Views |
आजादी के दौरान सत्ता हस्तांतरण में राजदंड (सेंगोल) की भूमिका सिर्फ सांकेतिक नहीं थी। स्वतंत्र भारत के लिए यह महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। वह इसलिए कि राजदंड केवल सत्ता परिवर्तन का प्रतीक नहीं था। बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपराएं और ऐतिहासिक बोध का भी अनूठा उदाहरण था। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने अपनी छवि को दरकने से बचाने के लिए इसे सत्ता के केंद्र से ही दूर कर दिया। अमृत काल में सेंगोल ने एक बार फिर उस याद को ताजा कर दिया है, जब 28 मई को इसे नई संसद में स्थापित किया गया।

Sengol N
तिहास को एक बार फिर दोहराया, जब तमिलनाडु के थिरूवावदुथुरई मठ के आधीनम ने सेंगोल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा। करीब 75 साल पहले जब देश आजाद हुआ था तब यही सेंगोल इसी मठ के आधीनम ने पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को सौंपा था। नेहरू को न्यायपूर्ण एवं निष्पक्ष शासन का कर्तव्यबोध कराने वाला यह सेंगोल साम्प्रदायिक लगा। इस कारण इन्होंने इस राजदंड को संसद या केंद्रीय सचिवालय में स्थापित करने के बजाय संग्रहालय में भिजवा दिया। 75 साल बाद इस अमृत काल में इस राजदंड को भी गुलामी की मानसिकता से आजादी मिल गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 28 मई को राजदंड रूपी कर्तव्यपथ, राष्ट्रपथ एवं सेवापथ के इस प्रतीक को नए संसद भवन में स्थापित किया है। लोकसभा अध्यक्ष के आसन की दाईं ओर स्थापित करने से पहले इस राजदंड को थिरूवावदुथुरई मठ के आधीनम ने पूरे विधि विधान के साथ प्रधानमंत्री मोदी को सौंपा। दरअसल, सन् 1947 में आजादी से पहले भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन एक विशिष्ट आदेश के साथ दिल्ली आये थे। आदेश के मुताबिक भारतीयों को सत्ता सौंपना और अंग्रेजों के भारत छोड़ने को सक्षम बनाना था। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू से पूछा कि हस्तांतरण के इस क्षण को कैसे आयोजित किया जाना चाहिए या सत्ता के हस्तांतरण को चिन्हित करने के लिए किस प्रतीक को अपनाया जाना चाहिए?
 
“सेंगोल पांच फीट लंबा चांदी से निर्मित एवं सोने का लेप चढ़ाया हुआ दंड है।इसे मद्रास के स्वर्णकार वुम्मिडि बंगारू चेट्टी ने बनाया था। अद्भुत कलाकृति युक्त इस राजदंड के शीर्ष पर नंदी की सुंदर छवि देखते ही बनती है।”
RAJDAND
 आईजीएनसीए के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय इस बारे में बताते हैं, 'पं. नेहरू ने सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) के समक्ष यह प्रश्न रखा। नेहरू उनका भारतीय रीति-रिवाजों के ज्ञान के लिए सम्मान करते थे। राजाजी को इसका जवाब, भारत के इतिहास में तमिलनाडु के चोल साम्राज्य की परंपरा में मिला। चोल भारत के सबसे महान एवं प्राचीन शासकों में से एक थे। चोल साम्राज्य में सत्ता हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए नए शासक द्वारा सेंगोल को स्वीकार किया जाता था। सेंगोल नीतिपरायणता का प्रतीक था। यह साम्राज्य के मुख्य पुजारी द्वारा दिया जाता था। इसलिए राजाजी ने नेहरू को सुझाव दिया कि माउंटबेटन से उसी प्रकार का सेंगोल स्वीकार किया जा सकता है। नेहरू ने इस पर सहमति व्यक्त की और राजाजी को ही यह कार्य सौंपा।'
कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि राजाजी ने चोल भूमि के केंद्र में स्थित पांच शताब्दियों से भी प्राचीन एक प्रमुख धार्मिक मठ थिरूवावदुथुरई आधीनम से संपर्क किया। तत्कालीन द्रष्टा 20वें गुरु महासन्निधानम श्री ला श्री अंबलवाण देसिगर स्वामी ने उस समय बीमार होने के बाद भी इस कार्य को स्वीकार किया। उन्होंने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रसिद्ध स्वर्णकार वुम्मिडी बंगारू को सेंगोल बनाने का कार्य सौंपा। सेंगोल तैयार होने के बाद उनके सहयोगी श्री ला श्री कुमारस्वामी तम्बीरन सेंगोल और आधीनम के ओदुवार (विशेष गायक) मणिक्कम और नादस्वरम के प्रसिद्ध वादक राजारथिनम पिल्लई के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुंचे।
आजादी से कुछ मिनट पहले पं. नेहरू ने नए राष्ट्र के सफल भविष्य के लिए सेंगोल को सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार 15 अगस्त 1947 को भारतीय हाथों में सत्ता का हस्तांतरण एक हजार वर्ष पहले की सभ्यतागत प्रथा के प्रतीक के साथ हुआ था। पं. नेहरू ने पूरे विधि विधान से राजदंड के साथ शपथ ली। इसके बारे में आजादी से कुछ दिन पहले और बाद में भी कुछ अखबारों से विस्तार से खबरें भी प्रकाशित की थी। लेकिन अधिकांश ने इसे एक धार्मिक आयोजन ही बताया। टाइम मैगजीन जैसे कुछ अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने तो इसको लेकर नेहरू की आलोचनात्मक खबरें छापी। नेहरू इससे डर गए। उन्हें अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पर दाग लगने जैसा महसूस होने लगा। शायद इसी वजह से देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं से पीछा छोड़ाना ही बेहतर समझा।
 संसद की नई इमारत में पवित्र सेंगोल की स्थापना कर इसकी गरिमा लौटाई गई है। महान चोल साम्राज्य में सेंगोल कर्तव्यपथ, सेवापथ और राष्ट्रपथ का प्रतीक माना जाता था। राजाजी और आदिनम के संतों के मार्गदर्शन में सेंगोल स्वतंत्रता के समय सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक बना था। ये हमारा सौभाग्य है कि पवित्र सेंगोल को हम उसकी गरिमा व मान-मर्यादा लौटा सके हैं। जब भी इस संसद भवन में कार्यवाही शुरू होगी, सेंगोल सभी को प्रेरणा देता रहेगा।- नरेन्द्र मोदी,प्रधानमंत्री
वे अपनी सेक्यूलर छवि बनाए रखना चाहते थे। सब कुछ पूरे विधि विधान से मंगल कार्य समझ कर ही हुआ लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। साथ ही उन्होंने भारतीय परंपरा में सत्ता हस्तांतरण के इस प्रतीक को इतिहास के पन्नों में भी दर्ज नहीं होने दिया। जबकि वह घटनाक्रम दक्षिण एवं उत्तर भारत के उल्लेखनीय एकीकरण और राष्ट्र के जन्म को स्मरणीय रूप दिया है। बताया जाता है कि बहुत दिनों तक राजदंड पं. नेहरू के प्रयागराज स्थित घर पर रखा गया। उसके बाद इसे कोलकाता के म्यूजियम में रखा गया। वहां से राजदंड इलाहबाद संग्रहालय पहुंचा। नए संसद भवन के उद्घाटन से कुछ दिनों पूर्व यह राजदंड दिल्ली लाया गया।
इसका जिम्मा संस्कृति मंत्रालय ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) को सौंपा था। आईजीएनसीए ने ही मूल राजदंड को इलाहबाद संग्रहालय से दिल्ली लाया, जिसे 28 मई को नए संसद भवन में स्थापित किया गया। इस पर आईजीएनसीए के अध्यक्ष रामबहादुर राय बताते हैं, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने विधिवत एक अनुबंध करके इलाहाबाद संग्रहालय से उसे प्राप्त किया है। इसे भारत सरकार को सौंपा गया है। उस राजदंड की एक रिपब्लिका (दूसरा राजदंड) भी बनाई गई है। जो एकदम उसी तरह की है। रिपब्लिका शायद सुरक्षित रखी जाएगी या मूल सुरक्षित रखी जाएगी, यह मुझे ज्यादा मालूम नहीं है।'
अमृतकाल का प्रतिबिंब सेंगोल
सेंगोल शब्द तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘नीतिपरायणता’। इसे तमिलनाडु के एक प्रमुख धार्मिक मठ के मुख्य आधीनम (पुरोहितों) का आशीर्वाद प्राप्त है। ‘न्याय’ के प्रेक्षक के रूप में, अपनी अटल दृष्टि के साथ देखते हुए हाथ से उत्कीर्ण नंदी इसके शीर्ष पर विराजमान हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेंगोल को ग्रहण करने वाले व्यक्ति को न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रूप से शासन करने का ‘आदेश’ (तमिल में ‘आणई’) होता है। लोगों की सेवा करने के लिए चुने गए लोगों को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। 1947 के उसी सेंगोल को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लोकसभा में अध्यक्ष के आसन के पास प्रमुखता से स्थापित किया गया। इस राजदंड को आम लोगों को देखने के लिए प्रदर्शित किया जाएगा और विशेष अवसरों पर बाहर भी ले जाया जाएगा। अमित शाह ने कहा है कि इस ऐतिहासिक ‘सेंगोल’ ( राजदंड) के लिए संसद भवन ही सबसे अधिक उपयुक्त और पवित्र स्थान है। ‘सेंगोल’ की स्थापना 15 अगस्त, 1947 की भावना को अविस्मरणीय बनाती है। यह असीम आशा, अनंत संभावनाओं और एक सशक्त व समृद्ध राष्ट्र के निर्माण का संकल्प है। यह अमृतकाल का प्रतिबिंब होगा, जो नए भारत को विश्व में अपने यथोचित स्थान को ग्रहण करने के गौरवशाली क्षण का साक्षी बना। राजदंड एक सुंदर नक्काशी वाला सुनहरे रंग का है। जिस पर भगवान शिव के वाहन नंदी की आकृति है। नंदी न्याय के प्रतीक हैं। पुजारियों द्वारा भगवान शिव के आशीर्वाद का आह्वान कर सेंगोल नए राजा को सौंपा जाता था। राजदंड के शीर्ष पर नंदी की उपस्थिति का सीधा मतलब है कि चोल शैव मत को मानने वाले थे।
मद्रास के स्वर्णकार वुम्मिडी द्वारा निर्मित
मद्रास के वुम्मिडी ज्वेलर्स के वर्तमान संचालक के मुताबिक आधीनम ने उनके पुर्वजों को सेंगोल के निर्माण का कार्य सौंपा था। इसे चांदी में सोने की परत चढ़ाकर बनाया गया था। सेंगोल को पूरा करने में 10 स्वर्ण शिल्पकारों के एक दल को 10-15 दिन लगे। वह गर्व प्रकट करते हुए कहते हैं कि हमें इतने महत्वपूर्ण अवसर से जुड़ा कार्य सौंपा गया, यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात थी। हमने सेंगोल को सौंपने से पहले एक छोटी सी पूजा की थी।
कुछ विशेष तथ्य
सेंगोल 5 फीट का है और ऊपर से नीचे तक समृद्ध शिल्प कौशल से संपन्न एक अति सुंदर कृति है। यह नीतिपरायणता का एक उपयुक्त प्रतीक है।
सेंगोल का गोला हमारे संसार का प्रतीक है, जिसके शीर्ष पर भगवान शिव के वाहन और द्वारपाल नंदी की एक सुंदर नक्काशी है। नंदी सर्वव्यापी दृष्टि के साथ धर्म व न्याय के रक्षक माने जाते हैं।
सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल को लेकर तब देश के सभी प्रकाशनों में बड़े पैमाने पर छापा गया था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी प्रतीक और उसके महत्व को रेखांकित किया। 25 अगस्त 1947 की टाइम पत्रिका ने इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी थी। उसमें पत्रिका ने इसको लेकर नेहरू की आलोचना भी की थी।
Tags

विजय कुमार राय

विजय कुमार राय (वरिष्‍ठ संवाददाता)
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। साल 2012 से दूरदर्शन के ‘डीडी न्यूज’ से जुड़कर छोटी-बड़ी खबरों से लोगों को रू-ब-रू कराया। उसके बाद कुछ सालों तक ‘कोबरापोस्ट’ से जुड़कर कई बड़े स्टिंग ऑपरेशन के साक्षी बने। वर्तमान में ये हिन्दुस्थान समाचार समूह की पत्रिका ‘युगवार्ता’ और ‘नवोत्थान’ के वरिष्‍ठ संवाददाता हैं। इन दिनों देश की सभ्यता-संस्कृति और कला के अलावा समसामयिक मुद्दों पर इनकी लेखनी चलती रहती है।