इमरजेंसी के तीन सवाल

युगवार्ता    07-Jul-2023   
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हर साल इमरजेंसी के काले दिनों को याद करने के लिए आयोजन होते हैं। कुछ रस्मी होते हैं, तो कुछ आयोजनों में पुरानी यादें साझा की जाती हैं और भविष्‍य में फिर कभी इमरजेंसी जैसे हालात न बने इसकी चेतावनी दी जाती है। सवाल यह है कि इतने सालों बाद इमरजेंसी को क्यों याद रखना चाहिए? क्यों उस पर चर्चा होनी चाहिए? क्या इमरजेंसी पर चर्चा जरूरी है?

इंदिरा गांधी और जेपी  
दो साल बाद इमरजेंसी के 50 साल हो जाएंगे। यह साल 48वां है। हर साल ही इमरजेंसी के काले दिनों को याद करने के लिए आयोजन होते हैं। कुछ रस्मी होते हैं, तो कुछ आयोजनों में पुरानी यादें साझा की जाती हैं और भविष्‍य में फिर कभी इमरजेंसी जैसे हालात न बने इसकी चेतावनी दी जाती है। ऐसी सूचना है कि इस साल बड़े पैमाने पर इमरजेंसी को विभिन्न रूपों में याद किया गया। सोशल मीडिया में इन आयोजनों के बारे में काफी कुछ आया है। देश की राजधानी में भी तीन तरह के आयोजन हुए। पहला आयोजन उन युवकों ने किया जो कानून की पढ़ाई पूरी कर अपनी वकालत शुरू कर रहे हैं। दूसरा आयोजन स्वाभिमान आंदोलन के बैनर तले हुआ। तीसरे को पत्रकारों के एक संगठन ने आयोजित किया।
इनमें पहला आयोजन खास है। खास इसलिए हैं क्योंकि उसे ‘यंग लॉयर्स फॉर डेमोक्रेसी’ ने बुलाया था। दिल्ली विश्‍वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व महासचिव और एडवोकेट विशु बसोया ने यह मंच बनाया है। इस आयोजन में बड़ी संख्या में नए वकील जमा हुए। जगह छोटी पड़ गयी। इसका एक कारण बसोया की संगठन क्षमता तो है ही, लेकिन यह भी बड़ा कारण था कि तुषार मेहता और तेजस्वी सूर्या वक्ता थे। विषय था- ‘इमरजेंसी के दौरान संविधान का दुरूपयोग’। इसी से मिलता-जुलता आयोजन पत्रकारों का था। जिसे नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट (एनयूजे) ने रखा था। इन दोनों में वक्ताओं ने जहां यादें साझा की, वहीं यह बात विस्तार से बताई कि इमरजेंसी के दौरान तानाशाही के फंदे को ज्यादा मजबूत करने के लिए संविधान में भारी फेर-बदल किया गया। मौलिक अधिकारों का हनन और नागरिकों पर जुल्म की घटनाएं तो इतनी हैं कि उन्हें कोई गोष्‍ठी अपने में समेट नहीं सकती। तीसरे आयोजन की प्रकृति राजनीतिक थी। इमरजेंसी को राजनीति की दृष्टि से देखने और समझने का अपना एक स्थाई महत्व है। इस आयोजन की अध्यक्षता के.एन. गोविंदाचार्य ने की।
इतने सालों बाद इमरजेंसी को क्यों याद रखना चाहिए? क्यों उस पर चर्चा होनी चाहिए? क्या इमरजेंसी पर चर्चा जरूरी है? इन सवालों का संबंध इस बात से है कि अक्सर यह सुनाई पड़ता है कि आजकल जो हालात हैं वे इमरजेंसी जैसे हैं। क्या इसमें कोई सच्चाई है? इसे जानने के लिए तीन सवालों के जवाब खोजने चाहिए। पहला कि इमरजेंसी क्यों लगाई गई? दूसरा कि इमरजेंसी के 21 महीनों की सच्चाई क्या है? तीसरा कि क्या आज सचमुच इमरजेंसी जैसे हालात हैं?
इमरजेंसी के बारे में बहुत भ्रम है। पहला भ्रम है कि इमरजेंसी 25 जून, 1975 को लगाई गई। यह बात सर्वसाधारण में एक भ्रांति के तौर पर बनी हुई है। इसका एक कारण भी है। बड़ा कारण तो यह है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण 25 जून की आधी रात को बिना किसी कारण के गिरफ्तार कर लिए गए। वे थके थे। रामलीला मैदान की सभा के बाद देर रात तक जगे रहे, क्योंकि विपक्ष के नेताओं ने उन्हें जगाये रखा। उनको बात करनी थी। जेपी से मार्गदर्शन प्राप्त करना था और अगली लड़ाई के लिए सलाह लेनी थी। वयोवृद्ध जेपी को गहरी नींद से जबरदस्ती जगाकर पुलिस ने उन्हें संसद मार्ग के थाने पहुंचाया। वहां कांग्रेस के बड़े नेता चंद्रशेखर पहुंचे। वे जेपी की गिरफ्तारी का समाचार सुनकर पहुंचे थे। यहां दो बातें याद रखने की हैं। चंद्रशेखर उस समय कांग्रेस में थे। वे कांग्रेस कार्य समिति के निर्वाचित सदस्य थे। फिर भी उन्हें जेपी से भेंट के बाद पुलिस ने गिरफ्तारी की सूचना दी। इस तरह जेपी और चंद्रशेखर एक साथ गिरफ्तार हुए।
इस कारण आम धारणा है कि इमरजेंसी तो 25 जून को लगाई गई। तथ्य बिल्कुल अलग है। इमरजेंसी लगाई ही तब जा सकती है जब केंद्र का मंत्रिमंडल उसे मंजूर करे। ऐसा 25 जून की रात में नहीं हुआ था। संवैधानिक प्रावधान का यह पहला खुला और मनमाना उल्‍लंघन था। इसका एक किस्सा है। जिसका संबंध राष्‍ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से भी है। इसके बारे में उस समय के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने विस्तार से बताया है। इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए मोरारजी देसाई की सरकार ने एक आयोग बनाया था। वह शाह आयोग था। इंदिरा गांधी का अहंकार कितना प्रबल था, इसे शाह आयोग के पन्नों में देखा जा सकता है। उसी आयोग के सामने सिद्धार्थ शंकर रे ने अपनी गवाही में बताया था कि 25 जून की सुबह वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ राष्‍ट्रपति भवन जा रहे थे। रास्ते में जब गाड़ी विजय चौक के आस-पास पहुंची, तो इंदिरा गांधी ने उनसे कहा कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी लिए वगैर इमरजेंसी कैसे लगाई जा सकती है?
इसके लिए सिद्धार्थ शंकर रे ने समय मांगा। जिससे कि वे संविधान के प्रावधानों और संबंधित दस्तावेजों का अध्ययन कर सकें। यह करने के बाद उन्होंने सलाह दी कि अगर राष्‍ट्रपति इमरजेंसी की घोषणा के पत्र पर दस्तखत कर देते हैं, तो इमरजेंसी की विधिवत घोषणा किए वगैर उसके सख्त प्रावधानों का इस्तेमाल किया जा सकता है। यह सलाह संविधान के दुरूपयोग की थी। आज हम जानते हैं कि देर रात में राष्‍ट्रपति का हस्ताक्षर उनकी अनिच्छा के बावजूद लिया गया। इस तरह 25 जून की रात में ही मीडिया पर हमले हुए। बड़े नेताओं की गिरफ्तारियां हुई। लेकिन मंत्रिमंडल की मंजूरी तो एक औपचारिकता थी। जिसे 26 जून की सुबह पूरा किया गया। प्रधानमंत्री के निवास में मंत्रियों को बुलाया गया। हर मंत्री को बहुत सुबह जगाने के लिए विशेष व्यवस्था की गई। मंत्री हैरान और परेशान थे कि बात क्या है? मंत्रिमंडल की बैठक में उन्हें राज पता चला कि इमरजेंसी की घोषणा करने के लिए उन्हें बुलाया गया है। लिहाजा उनको पहले से तय निर्णय पर मुहर लगानी थी। सिर्फ सरदार स्वर्ण सिंह ने पूछा कि इमरजेंसी की जरूरत क्या है? उन्हें उत्तर नहीं मिला। इंदिरा गांधी ने मंत्रिमंडल की बैठक फटाफट खत्म की और सुबह रेडियो से देशवासियों को इमरजेंसी के सदमें का झटका दिया। साफ है कि इमरजेंसी लगाने की संवैधानिक प्रक्रिया को ही पलट दिया।
असली सवाल आज भी यही है कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी क्यों लगाई? इसका सीधा जवाब है कि वे बिना इमरजेंसी लगाए प्रधानमंत्री बनी नहीं रह सकती थीं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें चुनाव में भ्रष्‍टाचार का दोषी ठहरा कर उनकी लोकसभा सदस्यता समाप्त कर दी थी। अगर उनमें लोकतंत्र के प्रति आस्था होती तो वे इमरजेंसी न लगाकर पद छोड़ देती और कांग्रेस के नेताओं में से कोई एक संसदीय दल का नेता चुना जाता जो प्रधानमंत्री बनता। जिस दिन उन्हें चुनाव में भ्रष्‍टाचार का दोषी ठहराया गया उस दिन जेपी से किसी ने पूछा कि इंदिरा गांधी क्या करेंगी, तो जेपी का जवाब था कि वे इस्तीफा सौंप देंगी। तब तक जेपी ने सोचा भी नहीं था कि इंदिरा गांधी इमरजेंसी की रस्सी पकड़कर अपनी कुर्सी पर बैठी रहेंगी और उन्हें जेल जाना पड़ेगा।
“क्या आज के हालात इमरजेंसी जैसे हैं? इसका विवेक सम्मत उत्तर यह है कि लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं। जो राजनीतिक रूप से मनोरोगी हैं, वे ही यह प्रलाप कर रहे हैं कि हालात इमरजेंसी जैसे हैं। सच यह है कि आज संविधान सम्मत शासन है और उसके प्रभाव को दुनिया भी स्वीकार कर रही है।”
 
अगस्त क्रांति के महानायक थे, जेपी। अंग्रेजों ने उनको जेल में कैद किया था। लेकिन जेपी ने एक इतिहास रचा। हजारीबाग की जेल की ऊंची दिवारें भी उन्हें कैद में नहीं रख सकी। उस जेपी को आजादी के रजत जयंती के तीन साल बाद इंदिरा गांधी ने जेल में डाला। वे बीमार थे। बूढ़े थे। साफ है कि सरकार उन्हें मारना चाहती थी। जिसे भांपने में जेपी को देर नहीं लगी। यह सच है, शरीर उनका जर्जर था। पर संघर्ष की आग उनमें कम नहीं थी। फिर भी इंदिरा गांधी के बर्बर अत्याचार का उनपर असर हुआ। वे उसी तरह सदमें में पड़े जैसे देश का एक नागरिक पड़ा था। जेपी की एक जेल डायरी है। वह ‘कारावास की कहानी’ के नाम से छपी है। इस जेल डायरी को 25 जून, 1975 से शुरू होना चाहिए। पर ऐसा नहीं हुआ। जेपी ने अपनी कलम चलाई, 21 जुलाई को। वे लिखते हैं, ‘मेरे चारों तरफ की दुनिया टूट कर बिखर गई है।’ उसी दिन उन्होंने यह भी लिखा कि ‘मेरी गलती यह हुई कि मैंने मान लिया था कि एक लोकतांत्रिक देश की प्रधानमंत्री बहुत करेंगी तो हमारे शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन को पराजित करने के लिए सभी साधारण-असाधारण कानूनों का इस्तेमाल करेगी, परन्तु ऐसा नहीं होगा कि वे लोकतंत्र को ही खत्म कर देंगी और उसकी जगह पर एक अधिनायकवादी व्यवस्था कायम कर देंगी।’
जेपी की यह जेल डायरी भी यही कहती है कि इमरजेंसी गैर-जरूरी थी। इमरजेंसी के 21 महीने को तीन हिस्से में देखना चाहिए। इसके तथ्य और प्रमाण अब ढे़र सारे उपलब्ध हैं। पहला हिस्सा है, जिसमें देश-समाज सदमें में पड़ा। दूसरा हिस्सा है, जब राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संयोजन में भूमिगत आंदोलन की तैयारी शुरू हुई। आंदोलन का दायरा देश तो था ही, दुनिया भी थी। तीसरा हिस्सा है, जिसमें इंदिरा गांधी को भ्रमित कर चुनाव कराने की रणनीति बनी और वह सफल रही। इंदिरा गांधी को भ्रम था कि चुनाव में इमरजेंसी के कारण लोग भयवश कांग्रेस को जिताएंगे। इस प्रकार उनका यह भी ख्याल रहा होगा कि ऐसा होने पर वे कह सकेंगी कि इमरजेंसी पर जनता ने जनादेश के जरिए मुहर लगा दी है। हर तानाशाह हारता है। जीतने के भ्रम में मिलती उसे पराजय है। इंदिरा गांधी को भी इमरजेंसी के तीसरे दौर में पराजय ही मिली। क्या आज के हालात इमरजेंसी जैसे हैं? इसका विवेक सम्मत उत्तर यह है कि लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं। जो राजनीतिक रूप से मनोरोगी हैं, वे ही यह प्रलाप कर रहे हैं कि हालात इमरजेंसी जैसे हैं। सच यह है कि आज संविधान सम्मत शासन है और उसके प्रभाव को दुनिया भी स्वीकार कर रही है।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।