भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिस तरह भारतीय लोग स्वतंत्रता, समानता, उदारता, बंधुत्व, राष्ट्रवाद और मानवता के लिए लड़ रहे थे, उसी तरह से इन विचारों के समर्थक कुछ विदेशी लोग भी हमारे समर्थन में थे। इस दौरान कुछ विदुषी महिलाएं भी इन विचारों से प्रभावित होकर देशवासियों के हक के लिए काम करने भारत आ गईं और यहां के लोगों, संस्कृति और समाज की होकर रह गईं। वे अपने देश के शासकों के खिलाफ मुखर होकर लड़ी और इस देश में रहकर यहीं की मिट्टी में सदा के लिए मिल गईं। ऐसी ही कुछ संघर्षशील महिलाओं के वृहद जीवन के कुछ संक्षिप्त अंश यहां देने की कोशिश है।
एनी बेसेंट : लंदन में 1847 को एक बहुत ही साधारण परिवार में पैदा हुईं ऐनी बेसेंट का बचपन काफी कष्ट में बीता। 1867 में उनका विवाह पादरी फ्रैंक बेसेंट से हुआ। विचारों में अंतर के चलते उनका वैवाहिक जीवन केवल पांच साल तक चल सका। 1874 में उन्होंने राष्ट्रीय सेक्युलर सोसायटी को ज्वाइन किया। बाद में वे फैबियन सोसायटी, जो एक सोशिलिस्ट संगठन था, से जुड़ गईं। यहां वे मजदूरों, गरीब लोगों और अकाल पीड़ितों आदि लोगों की लड़ाई लड़ने लगीं। 1878 में उन्होंने इसी क्रम में भारत की बात की। वे यहां की स्थिति देखकर यहां के लागों के लिए काम करने की इच्छुक हुईं। 1889 में एनी बेसेंट थियोसोफी के विचारों से प्रभावित हुईं और आजीवन इसके लिए काम करती रहीं। उन्होंने भारत को थियोसोफी विचारों का केंद्र बना दिया। वे 1893 में भारत आईं और 1906 तक वाराणसी में रहीं। भारतीय संस्कृति और अध्यात्म ने उनका दिल जीत लिया। वे देश में महिलाओं के विकास, उत्थान शिक्षा जैसे कार्यों से जुड़ी रहीं। महात्मा गांधी सहित अनेक भारतीय उनके कार्यों के प्रसंशक थे। वे 1907 को थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष भी निर्वाचित हुईं। और कांग्रेस की भी प्रथम महिला अध्यक्ष 1917 में बनीं। 1933 को उन्होंने भारत में ही अंतिम सांस ली और उनकी अस्थियां वाराणसी गंगा में प्रवाहित की गई।
नेली सेनगुप्त : नेली सेनगुप्त एक प्रसिद्ध अंग्रेज महिला थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। कैम्ब्रिज में 1886 में वे फ्रेडेरिक विलियम ग्रे एवं एडिथ हेनरिटा के यहां जन्मीं थीं। कॉलेज के दिनों में वे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी जतिन मोहन सेनगुप्त के संपर्क में आईं और बाद में उन्हीं के साथ विवाह बंधन में बंध गईं। शादी के बाद वे अपने ससुराल आई और संयुक्त परिवार में रहने लगीं। 1921 में महात्मा गांधी के आहवान पर असहयोग आंदोलन में पति के साथ भाग लिया। इस दौरान उन्होंने दरवाजे-दरवाजे जाकर खादी बेची और स्वतंत्रता की अलख जगाई। कानून न मानने के जुर्म में उन्हें जेल में भी डाला गया। जब जतिन मोहन को असम-बंगाल रेलवे हड़ताल के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया, तब उन्होंने डिस्ट्रिक अथॉरिटी के सामने प्रदर्शन किया और आंदोलन को सम्हाला। 1931 में दिल्ली सभा में अवैधानिक रूप से बोलने के जुर्म में चार महीने जेल में रहना पड़ा। 1933 में जेल में ही उनके पति की मृत्यु हो गई। नमक सत्याग्रह के दौरान जब बहुत से बड़े नेता जेल जा चुके थे, तब नेली को कांग्रेस अंध्यक्ष चुना गया। वे तीसरी महिला थीं जिन्हें यह पद प्राप्त हुआ। स्वतंत्रता के बाद वे अपने पति के घर जो आज के पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में पड़ता है, में रहने चली गईं। वहां वे हिन्दु अल्पसंख्यकों की भलाई के लिये सक्रिय रहीं। भारत से प्रेम के चलते उन्होंने 1973 में कोलकाता में आखिरी सांस ली। 1973 में उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।

मार्गरेट नोबल : आयरलैंड में पादरी सैम्युल नोबल के घर 1867 में मार्गरेट ने जन्म लिया। शिक्षा-दीक्षा के बाद वे 17 वर्ष की अवस्था में शिक्षिका बन गई। कुछ ही समय बाद उन्होंने विम्बलेडन में एक स्कूल स्थापित किया और शिक्षा देने के अनोखे तरीके के कारण वे काफी लोकप्रिय हो गईं। पढ़ने-लिखने के कारण वे लंदन के प्रबुद्ध वर्ग में शीध्र ही शामिल हो गईं। इस दौरान वे बौद्ध धर्म से भी प्रभावित हुईं। उनका जीवन तब एकदम बदल गया, जब वे 1895 में स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आईं। विवेकानंद उस समय अमेरिका से लंदन गये हुए थे। उन्होंने धर्म-अध्यात्म से संबंधित अनेक प्रश्नों का समाधान विवेकानंद के जरिये किया। 1898 में वे भारत आईं और दक्षिणेश्वर मंदिर गईं। कोलकाता में ही विवेकानंद ने मार्गरेट को सिस्टर निवेदिता नाम से लोगों से परिचय कराया। यहीं पर विवेकानंद ने उन्हें ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी। यह इतिहास में पहली बार हुआ था, जब किसी विदेशी महिला को किसी मठ ने दीक्षा दी थी। उनका पूरा जीवन गरीब और शोषितों की सेवा में बीता। सिस्टर निवेदिता ने महिलाओं और उनकी शिक्षा के लिए काम किया। बच्चियों को शिक्षित करने के लिए वे दरवाजे-दरवाजे गईं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए जमीनी स्तर पर काम करते हुए उन्होंने 1899 के दौरान फैले प्लेग महामारी के लिए जो काम किया, वह मानवता के लिये मिसाल बन गई। उन्होंने न केवल रोगियों की सेवा की, बल्कि समाज में इसे लेकर जागरुकता भी फैलाई जिससे समाज इस महामारी से लड़ सका। बंगाल विभाजन, बाढ़ और अकाल के दौरान उन्होंने भारतीय समाज की इतनी लगन से सेवा की, कि वे अपने स्वास्थ्य का भी ख्याल नहीं रख सकीं। इसी के परिणाम स्वरूप वे बीमार पड़ी, मात्र 43 वर्ष की अवस्था में 1911 में उनकी मृत्यु हो गईं।