टॉरेट सिंड्रोम: पैरेंट की होगी प्रमुख भूमिका

युगवार्ता    09-Aug-2023   
Total Views |
बच्चों में टॉरेट सिंड्रोम तंत्रिका तंत्र से संबंधित विकार है। इस विकार से ग्रस्त रोगियों के शरीर में मांसपेशियों में असाधारण संकुचन होता है जिस पर रोगी का नियंत्रण नहीं होता।

टॉरेंट सिंड्रोम  
टॉरेट सिंड्रोम एक प्रकार का तंत्रिका तंत्र से संबंधित विकार है। विश्व स्तर पर एक से दो प्रतिशत से अधिक बच्चे एवं युवा इस विकार से प्रभावित हैं। टॉरेट सिंड्रोम अधिकतर मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर बेसल गैंगलिया से जुड़ा होता है जिसका कार्य शरीर की विभिन्न गतिविधियों को नियंत्रित करना होता है। यदि बेसल गैंगलिया प्रभावित होता है, तो इसके कारण मस्तिष्क के रसायन एवं तंत्रिका कोशिकाएं प्रभावित होती हैं, जो मस्तिष्क से संदेश शरीर के अंगों तक पहुंचाती हैं। इस विकार से ग्रस्त रोगियों के शरीर में तंत्रिका तंत्र की समस्या के कारण मांसपेशियों में असाधारण संकुचन होता है जिस पर रोगी का नियंत्रण नहीं होता। मांसपेशियों के इस प्रकार के संकुचन को टिक्स कहा जाता है, जो इस विकार का प्रमुख लक्षण होता है। टिक्स शारीरिक, मौखिक एवं व्यावहारिक हो सकते हैं। अधिकतर यह विकार 5 से 9 वर्ष की आयु में बच्चों में दिखाई देता है, परंतु युवा भी इस प्रकार के रोग से ग्रसित हो सकते हैं। यह विकार महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में अधिक देखने को मिलता है।
लक्षण
शारीरिक लक्षण : आंखें घुमाना, मुंह घुमाना, नाक घुमाना, चेहरा बनाना, कंधे उचकाना, सिर या अन्य किसी अंग को मरोड़ना, कूदना, दांत चबाना, होंठ चबाना, पलके झपकाना, बार-बार चीजों को छूना व सूंघना आदि।
मौखिक लक्षण : चीखना, गला बार-बार साफ करना, हिचकी लेना, जीभ चलाना, जानवरों जैसी ध्वनि निकालना, एक ही बात को दोहराते रहना, बिना सोचे बोलते रहना आदि।
व्यावहारिक लक्षण : अचानक क्रोध करना, गालियां देना, असामाजिक व्यवहार करना आदि।
कारण : टॉरेट सिंड्रोम के कारण इस प्रकार हैं-
अनुवांशिक कारण : यदि परिवार में कोई व्यक्ति इस विकार से ग्रसित हो तो यह रोग होने की संभावना 10 से 15 फीसदी तक बढ़ जाती है।
 न्यूरोट्रांसमीटर के असंतुलन : मस्तिष्क में स्थित न्यूरोट्रांसमीटर के असंतुलन के कारण यह विकार उत्पन्न हो सकता है।
अन्य रोगों के कारण : यदि पहले से बच्चा किसी व्यवहारात्मक विकार से ग्रसित हो जैसे आॅब्सेसिव कंपल्सिव डिसआॅर्डर (ओसीडी), अटेंशन डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसआॅर्डर (एडीएचडी) आदि तो इस रोग के होने की संभावना भी बढ़ जाती है। यदि व्यक्ति अवसाद, चिंता, नींद न आना या किसी अन्य रोग से बहुत समय से पीड़ित हो तो भी व्यक्ति को यह रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
अध्ययनों के अनुसार यदि गर्भावस्था के समय शारीरिक जटिलताएं हो तो भी इस विकार के होने की संभावना बढ़ जाती है।
धूम्रपान, नशीले पदार्थों का सेवन भी रोग के होने की संभावना को बढ़ा सकते हैं।
इलाज व उपचार
टॉरेट सिंड्रोम के लक्षणों को कम करने के लिए एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में डोपामिन ब्लॉकर, बोटलिनम इंजेक्शन, मिथाइल्फेनीडेट, डेक्सटरामफेटामाइन, कलोनिडीन आदि औषधियां प्रयोग में लाई जाती हैं। होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति में लक्षणों के आधार पर औषधियों का चयन किया जाता है। इस विकार में रोगी के व्यक्तित्व एवं लक्षणों को जानकर उचित होम्योपैथिक औषधि दी जाती है जिसका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। इस विकार में जागरूक प्रशिक्षण और प्रतिक्रिया प्रशिक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका है। माता-पिता के प्रशिक्षण से उपचार में सहायता मिलती है। इस प्रशिक्षण में माता-पिता को सकारात्मक प्रवर्तन एवं बच्चे को अनुशासित करना सिखाया जाता है जो टिक्स को कम करने में प्रभावी होता है। व्यावहारिक चिकित्सा जैसे आदत को बदलना, व्यवहार में हस्तक्षेप, बच्चे को टिक्स होते समय टोकना, गलत व्यवहार करने से रोकना आदि टिक्स की रोकथाम में सहायक होते हैं।
रोकथाम: निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है एवं इससे बचा भी जा सकता है।
सुपाच्य, पौष्टिक एवं संतुलित आहार का सेवन करें।
नियमित व्यायाम करें।
ध्यान व योगाभ्यास अवश्य करें।
अच्छी, गहरी नींद लें।
तनाव व चिंता को कम करें।
अपनी दिनचर्या को नियमित करें।
मन को प्रसन्न रखने का प्रयास करें।
Tags

डॉ रुचि शर्मा

डॉ रुचि शर्मा,  चिकित्‍सक और स्‍तंभकार 
एम.डी. (होम.)। आप वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक हैं। लोगों को आप योग, आहार और जीवनशैली के बीच प्रबंधन का सलाह भी देते हैं। आप भारत सरकार के आयुष मंत्रालय से प्रमाणित योग शिक्षक एवं मूल्यांकनकर्ता वाई.सी.बी. हैं।