भाषा ही संस्कृति की जीवन रेखा

युगवार्ता    21-Sep-2023   
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“मातृभाषा ही वह तत्व है जिसने देश, काल एवं राजनीतिक सीमाओं से परे हमारी जड़ों को जोड़कर रखा है। इसलिए देश की विभिन्न भाषाओं को संरक्षित रखने के लिए एकजुट प्रयास जरूरी है क्योंकि जब भाषा बचेगी तभी संस्कृति, सभ्यता और परंपरा भी बचेगी।”

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कविता का यह अंश ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ में छिपा है भारतीय संस्कार, परंपरा, सभ्यता, अध्यात्म, दर्शन और मान्यताओं के संरक्षण का मंत्र। भारतीय संस्कृति का मूल आधार वेद, उपनिषद और स्मृतियां हैं जो कि संस्कृत/लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इसी तरह उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी धारा की अनेक भाषाएं हिन्दी, असमिया, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू ,बोडो आदि में समृद्ध और गौरवमयी ऐतिहासिक तत्व मौजूद हैं।
ये बाईस भाषाएं संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। इसमें से संस्कृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और ओडिया को शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। शास्त्रीय भाषाओं का लिखित और मौखिक इतिहास 2000 वर्षों से भी अधिक पुराना है। इनकी तुलना में अंग्रेजी बहुत नई है क्योंकि इसका इतिहास केवल 300 वर्ष पुराना है।
वडोदरा स्थित भाषा अनुसंधान और प्रकाशन केंद्र के एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले पांच दशकों में ही भारत की लगभग 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। इसी क्रम में पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (पीएलएसआई) के सर्वेक्षण अनुसार 1961 में देश में 1,100 भाषाएं थीं, लेकिन उनमें से लगभग 220 गायब हो गई हैं। इसी सर्वेक्षण के अनुसार 780 भाषाओं की पहचान हुई है। बाकी की विलुप्ति हो गई हैं। यह एक दुखद स्थिति है।
 
सदियों से लेकर आज तक देश से बाहर जाने वाले लाखों प्रवासी भारतीयों का योगदान भाषा को प्रचारित-प्रसारित करने में ऐतिहासिक और अद्वितीय रहा है। प्रवासी भारतीय सांस्कृतिक राजदूत की तरह हैं। जिन्होंने हिन्दी, भोजपुरी जैसी अनेक भाषाओं के जरिए भारतीय मूल्यों और रीति-रिवाजों को सात समुंदर पार भी जीवित रखा है।
पीएलएसआई के अनुसार, विश्व की तकरीबन 4,000 भाषाओं में से भारत में बोली जाने वाली लगभग 10 फीसदी भाषाएं अगले 50 वर्षों में विलुप्ति की कगार पर होंगी। इन सभी भाषाओं में भारत की तटीय भाषाएं सबसे अधिक खतरे में हैं। यही स्थिति रही तो आने वाले वर्षों में 780 भाषाओं में से आधी भाषाएं विलुप्ति के कगार पर होंगी। इसलिए जिन भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है उन्हें बचाने के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी है। क्योंकि संस्कृति और परंपराओं में गहरा अंतसंर्बंध है।
अनेक परंपराएं सभी जातियों और धर्मों से परे होकर एक धागे की तरह भाषा से जुड़ी रहती हैं। यानी भाषा संस्कृति को मजबूत करती है और संस्कृति समाज को। इसलिए तो कहा जाता है कि यदि भाषा लुप्त होगी तो उससे जुड़ी पूरी एक संस्कृति लुप्त हो जाएगी। अर्थात भाषा किसी भी संस्कृति की जीवन रेखा और आत्मा है।
भाषा में न केवल कला, साहित्य बल्कि जीवन शैली, एक साथ रहने के तरीके, मूल्य प्रणालियां और परंपराएं भी शामिल हैं। क्योंकि मानव को अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति के लिए भाषा का आश्रय लेना पड़ेगा। यही सृजन का आधार है जिसमें भाषा (मातृभाषा) का प्रत्यक्ष जुड़ाव होता है।
यही अंतिम सत्य है। किसी भी देश के साहित्य में जो विशेषता होगी, वह मातृभाषा की झंकार से ही तरंगित होगी। क्योंकि बिना मातृभाषा के उनमें मौलिकता का अभाव रहता है। यानी किसी भी संस्कृति परंपरा की प्राकृतिक सुगंध मातृभाषा से ही संभव है। भारत का प्राचीन दर्शन वसुधैव कुटुंबकम की धारणा की वाहक भारतीय भाषाएं रही हैं।
भारत अनेक भाषाओं और संस्कृतियों का घर है। विविधता में एकता की सूत्रधार भाषा ही है जो हम सभी को एक साथ रखती है। भाषा की विविधता एक गौरवमयी सभ्यता की बुनियाद है क्योंकि सभ्यतागत मूल्य अनेक भाषाओं के जरिए पुष्पित और पल्लवित हुए हैं। मातृभाषा ही वह तत्व है जिसने देश, काल एवं राजनीतिक सीमाओं से परे हमारी जड़ों को जोड़कर रखा है। इसलिए विभिन्न भाषाओं को संरक्षित रखने में एकजुट प्रयास जरूरी है।
इस तरह भारत दुनिया के उन अनोखे देशों में से एक है जिसके पास भाषाओं की विविधता की विरासत है। भारत के संविधान ने 22 आधिकारिक भाषाओं को मान्यता दी है। इसके अलावा पिछले एक दशक से करीब 3 दर्जन से अधिक भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उससे जुड़े लोगों द्वारा की जाती रही है। अपने देश में बहुभाषावाद जीवन जीने का एक तरीका है क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में लोग अपने जन्म से ही एक से अधिक भाषाएं बोलते हैं और अपने जीवनकाल के दौरान अतिरिक्त भाषाएं भी सीखते हैं।
सदियों से लेकर आज तक देश से बाहर जाने वाले लाखों प्रवासी भारतीयों का योगदान भाषा को प्रचारित-प्रसारित करने में ऐतिहासिक और अद्वितीय रहा है। प्रवासी भारतीय सांस्कृतिक राजदूत की तरह हैं। जिन्होंने हिन्दी, भोजपुरी जैसी अनेक भाषाओं के जरिए भारतीय मूल्यों और रीति-रिवाजों को सात समुंदर पार भी जीवित रखा है। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में हिन्दी ने भारतीय संस्कृति के लिए कठिन परिस्थितियों के बीच भी आजतक अपना परचम बुलंद रखा है। आज विश्व के 100 से अधिक देशों में हिन्दी शिक्षण और प्रशिक्षण किसी न किसी रूप में मौजूद है।
विश्व में कभी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा मंडारिन थी लेकिन पिछले एक दशक से भारत के बढ़ते प्रभाव और जनसंख्या के चलते अब विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है। यह आंकड़ा करीब 130 करोड़ के करीब है। बावजूद इसके संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुराभाव के चलते हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत भाषाओं में स्थान नहीं दिया है। जबकि हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की 6 अधिकृत भाषाओं अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, स्पैनिश से अधिक संख्या में और देशों में लोकप्रिय है। ऐसे में अब बिना समय गवाएं शासन-प्रशासन से लेकर सभी भारतीयों को एकजुट होकर भाषाओं को बचाने के लिए सार्थक प्रयास करने की जरूरत है। क्योंकि जब भारतीय भाषाएं समृद्ध होंगी तभी देश की परंपरा, मूल्य और सांस्कृतिक विरासत भी सुरक्षित रहेगी।
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राम जी तिवारी

राम जी तिवारी (मुख्‍य उप संपादक)
 
अवध विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक। आईआईएमसी से पत्रकारिता में डिप्लोमा, कुरुक्षेत्र विवि से पत्रकारिता में परास्नातक। श्यामा प्रसाद मुखर्जी फाउंडेशन, डीडी किसान एवं वैश्य भारती पत्रिका सहित कई संस्थानों के संपादकीय विभाग में कार्य किया है। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी न्यूज एजेंसी से जुड़े हैं। फिलहाल ‘युगवार्ता’ पाक्षिक के मुख्‍य उप-संपादक हैं।