मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता

युगवार्ता    19-Jan-2024   
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संसार जानता है कि लक्ष्मण राम के सहोदर भाई नहीं हैं। सौतेले भाई हैं। विमाता के पुत्र हैं लेकिन रामचरितमानस में सौतेले भाई और विमाता तो हैं ही नहीं, बस माता ही हैं और भ्राता ही हैं। राम अपनी मां की अकेली संतान हैं लेकिन उनका अपने तीनों भाइयों से अगाध प्रेम है। उनके लिए तीनों माताएं एक हैं।
भरत सम भाई  
भगवान श्रीराम का अपने भाइयों के प्रति प्रेम अथाह है। अगाध है। भाइयों का भी राम के प्रति प्रेम कुछ कम नहीं है। भरत और राम का प्रेम देखें या राम और लक्ष्मण का प्रेम देखें तो हम पाएंगे कि स्नेह बोकर ही स्नेह की फसल काटी जा सकती है। हम जैसा व्यवहार अपने परिजनों के साथ करते हैं, वैसा ही कुछ हमें भी मिलता है। ‘सांझे करै सवेरे पावै’ वाली बात है। उनके सवभाव और व्यवहार में एकरूपता है। वहां कथनी और करनी का विभेद नहीं है। भगवान राम कभी ऐसा कुछ नहीं करते जिससे किसी को कष्ट हो। अपनी जिम्मेदारियों को वह बखूबी समझते हैं। लक्ष्मण का राम के प्रति अनुराग यह है कि वे भगवान राम की सुरक्षा में नींद, नारी और भोजन तक का परित्याग कर देते हैं।
‘नींद नारि भोजन परिहरहिं।’ यह अपने आप में बहुत कठिन साधना है। भाई के प्रति भाई का ऐसा प्रेम कभी देखने-सुनने को मिलेगा भी नहीं। यह इतिहास की पहली और कदाचित अंतिम घटना है। माना कि मेघनाद के वध के लिए ऐसा करना जरूरी था लेकिन यह एक दिन का काम नहीं था। पूरे 14 साल। मतलब पूरा वनवास उन्होंने निराहार रहकर काटा। लोग एक दिन व्रत करना होता है तो कितनी तैयारी करते हैं। आंख-कान बैठने लगते हैं। अंतड़ियां ऐंठने लगती हैं। लखनलाल चौदह साल व्रत कर गए। लेकिन भाई की रक्षा के लिए उन्होंने जो वीरासन की मुद्रा बनाई, उससे विरत तभी हुए जब राम या सीता की ओर से उन्हें किसी काम के लिए आदेश मिला। तभी तो जब लक्ष्मण को शक्ति लगती है तो भगवान राम कहते हैं कि ‘जइहौं अवध कवन मुंह लाई, नारि हेतु प्रिय बंधु गंवाईं।’ वे यह भी कहते हैं कि पत्नी तो नई मिल सकती है। मित्र और राज्य भी मिल सकते हैं। कई नए रिश्ते-नाते बन सकते हैं लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिल सकता। ‘मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता।’
संसार जानता है कि लक्ष्मण राम के सहोदर भाई नहीं है। सौतेले भाई हैं। विमाता के पुत्र हैं लेकिन रामचरित में सौतेले भाई और विमाता तो हैं ही नहीं, बस माता ही हैं और भ्राता ही हैं। राम अपनी मां की अकेली संतान हैं लेकिन उनका अपने तीनों भाइयों से अगाध प्रेम है। उनके लिए तीनों माताएं एक हैं। वे लक्ष्मण को सहोदर भ्राता से भी अधिक मानते हैं। तभी तो कहते हैं कि ' मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता।' वे यहीं नहीं रुकते। कहते हैं कि 'संसार कहेगा वनरों ने वन में बहकाए रघुवंशी। वनरे तो वन को भाग गए, सब कुछ खो आए रघुवंशी।' इससे भगवान राम का अनन्य प्रेम उपजता है और जब लक्ष्मण की बेहोशी टूटती है तो भगवान राम हनुमान से गले लगकर कहते हैं कि 'कपि ते उरिन हम नाहीं।' जब भगवान राम को वन भेजा जाता है तो कौशल्या राम से कहती हैं कि अगर पिता ने तुम्हें वनवास दिया है तो मैं मां होकर तुझे जंगल जाने से रोकती हूं। क्योंकि मां का स्थान पिता से ज्यादा होता है। बेटे पर बाप से ज्यादा अधिकार मां का है और अगर कैकेयी और दशरथ दोनों ने ही तुमसे जंगल जाने को कहा है तो सहर्ष जाओ। तुम्हारे लिए जंगल सैकड़ों अयोध्या की तरह होगा।
“राम कथा को अगर हम जीवन में उतारें तो परिवार में कभी कलह-क्लेश उत्पन्न ही नहीं होगा। परिवार को मजबूत बनाना है तो राम के चरित्र को जीवन में आत्मसात करना ही होगा।”
 
'जौ केवल पितु आयसु ताता, तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता। जौ पितु मातु कहेउ वन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।' मतलब राम जितना अपने भाइयों को प्रेम करते हैं, उतना ही प्रेम वे अपनी माताओं से भी करते हैं। तभी तो वे माता कौशल्या से कहते हैं कि पिता दीन्ह मोंहि कानन राजू।' सकारात्मक इतने हैं कि जंगल जाने में भी उन्हें अपना भला ही नजर आता है। ' जहं सब भांति मोर बड़ काजू।' यह देखिए कि वनवास राम को अकेले ही दिया गया है। लक्ष्मण को बिल्कुल भी नहीं दिया गया है लेकिन लक्ष्मण को लगता है कि अगर जंगल में भैया राम कष्ट भोगें तो मैं यहां अयोध्या के राजसदन में रहकर क्या करूंगा? भगवान राम कहते हैं कि लक्ष्मण अगर मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा तो यह बहुत गलत होगा। अयोध्या अनाथ हो जाएगी। ‘मैं वन जाऊं तुम्हहिं लै साथा, होई सबहिं विधि अवध अनाथा।’ उधर लक्ष्मण के प्रेम की पराकाष्ठा देखिए। उन्हें लगा कि भगवान राम उन्हें अपने साथ नहीं ले जा रहे हैं तो वे दुख के महासागर में डूब गए।

भाई लक्ष्‍मण के साथ भगवान राम  
‘उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाई। नाथ दासु मैं स्वामि तुम तजहुं न काह बसाई। वे कहते हैं कि मैं मन, कर्म और वाणी से आपके प्रति प्रेम रखता हूं। ऐसे में मुझे छोड़कर कैसे जा रहे हो। भगवान राम को निरुत्तर होना पड़ा। प्रेम अच्छे-भलों को हरा देता है। भगवान राम को कहना पड़ा- ‘मांगहुं बिदा मातु सन जाई, आवहुं बेगि चलहुं बन भाई।’ जंगल जाते वक्त राम के पैरों में कंकड़ चुभ जाता है तब राम धरती से निवेदन करते हैं कि जब मेरा भाई भरत मुझसे मिलने आए तो कुछ ऐसा करना, इतनी नरम हो जाना कि उसे कोई कंकड़ न चुभे। कोई कांटे न लगे। भाइयों के प्रति राम का यह अनुराग भाव है। चित्रकूट में भरत और राम के प्रेम को देखकर तो देवता भी धन्य-धन्य कह उठते हैं। ‘धन्य भरत जय राम गोसाईं, कहत देव हरषत बरिआईं।’ कहा तो यहां तक गया कि अगर भरत का जन्म नहीं होता तो मुनियों के लिए भी असंभव यम, नियम, संयम, इंद्रियों पर नियंत्रण और कठिन व्रत को कौन धारण करता?
‘सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनम न भरत को, मुनि मन अगम जम नियम सम दम विषम ब्रत आचरत को।’ राम दरबार में चारों भाइयों की उपस्थिति दशार्ती है कि राम का भाइयों के प्रति और भाइयों का राम का प्रति कितना प्रेम है? राम कथा को अगर हम जीवन में उतारें तो परिवार में कभी कलह-क्लेश उत्पन्न ही नहीं होगा। परिवार को मजबूत बनाना है तो राम के चरित्र को जीवन में आत्मसात करना ही होगा।
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संजीव कुमार

संजीव कुमार (संपादक)
आप प्रिंट मीडिया में पिछले दो दशक से सक्रिय हैं। आपने हिंदी-साहित्य और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है। आप विद्यार्थी जीवन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से भी जुडे रहे हैं। राजनीति और समसामयिक मुद्दों के अलावा खोजी रिपोर्ट, आरटीआई, चुनाव सुधार से जुड़ी रिपोर्ट और फीचर लिखना आपको पसंद है। आपने राज्यसभा सांसद आर.के. सिन्हा की पुस्तक ‘बेलाग-लपेट’, ‘समय का सच’, 'बात बोलेगी हम नहीं' और 'मोदी-शाह : मंजिल और राह' का संपादन भी किया है। आपने ‘अखबार नहीं आंदोलन’ कहे जाने वाले 'प्रभात खबर' से अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत की। उसके बाद 'प्रथम प्रवक्ता' पाक्षिक पत्रिका में संवाददाता, विशेष संवाददाता और मुख्य सहायक संपादक सह विशेष संवाददाता के रूप में कार्य किया। फिर 'यथावत' पत्रिका में समन्वय संपादक के रूप में कार्य किया। उसके बाद ‘युगवार्ता’ साप्तहिक और यथावत पाक्षिक के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह की पत्रिका ‘युगवार्ता’ पाक्षिक पत्रिका के संपादक हैं।