मप्र के गौतमपुरा में हिंगोट युद्ध परंपरा दहकती ज्वाला के साथ हुई जीवंत

युगवार्ता    22-Oct-2025
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मप्र में गौतमपुरा का हिंगोट युद्ध


इंदौर , 22 अक्टूबर (हि.स.)। मध्य प्रदेश के इंदौर जि‍ले के गौतमपुरा कस्बे में मंगलवार देरशाम वार्षिक हिंगोट युद्ध परंपरा दहकती ज्वाला के साथ जीवंत हो उठी। दिवाली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला यह आयोजन इस बार भी रोमांच, श्रद्धा और खतरे का मिश्रण लेकर आया। आग से जलते हिंगोट (बारूद भरे फल) जब हवा में तीरों की तरह उड़े तो कस्बा तालियों और नारों से गूंज उठा।

दूर-दूर से आए हजारों दर्शक मैदान के किनारों पर खड़े इस अद्भुत दृश्य के साक्षी बने। जैसे ही सूरज क्षितिज के पार गया, ढोल की तालों और नारों की गूंज के बीच दो परंपरागत दल मैदान में उतरे गौतमपुरा का तुर्रा दल और पास के रूणजी गांव का कलंगी दल। कुछ ही क्षणों में दोनों ओर से बारूद से भरे हिंगोटों की बरसात शुरू हो गई। आग की लपटों से घिरे ये फल जब हवा में उड़े तो रात के अंधेरे में ऐसा प्रतीत हुआ मानो आसमान खुद जल उठा हो। दर्शकों में रोमांच और भय का मिश्रण एक साथ दिखाई देता। कोई “तुर्रा की जय!” के नारे लगाता, तो कोई कलंगी की बहादुरी पर तालियां बजाता। करीब डेढ़ घंटे तक चला यह आग का खेल इस बार भी घायल और झुलसे लोगों की खबरें लेकर लौटा।

ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर वंदना केसरी के अनुसार, लगभग 35 लोगों को मामूली चोटें आईं, जिनका इलाज मौके पर ही कर दिया गया, जबकि पांच को देपालपुर के स्वास्थ्य केंद्र और चार को इंदौर के महावीर अस्पताल में भर्ती कराया गया है। कभी ये 250 साल पहले मुगलों को परास्‍त करने के लिए शुरू हुआ था। लेकिन आज ये एक परंपरा के रूप में हर साल होता है और अपने आस-पास के वातावरण को उत्‍साह से भर देता है।

दो गांवों में परंपरागत होड़दरअसल, हिंगोट युद्ध में परंपरागत रूप से दो दल आमने-सामने होते हैं; गौतमपुरा का तुर्रा दल और रूणजी गांव का कलंगी दल। सूर्यास्त के बाद दोनों दल टोटेम, निशानों और नारों के साथ युद्ध मैदान में उतरते हैं। हिंगोट असल में बेलनुमा फल होते हैं जिन्हें सुखाकर उनमें बारूद भरा जाता है। आग लगाकर जब योद्धा इन्हें एक-दूसरे पर फेंकते हैं, तो पूरा आसमान दीयों और धुएं से जगमगा उठता है। प्रशासन ने पहले से सुरक्षा इंतजाम किए थे, फायर ब्रिगेड और एंबुलेंस मौके पर मौजूद रहे। थाना प्रभारी अरुण सोलंकी के अनुसार, कुल 44 लोग घायल हुए । भीड़ और उत्साह को देखते हुए इस बार युद्ध को निर्धारित समय से आधा घंटा पहले ही समाप्त कर दिया गया, ताकि किसी बड़ी दुर्घटना से बचा जा सके।

250 वर्ष पुरानी परंपराइतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि लगभग 250 वर्ष पहले जब मराठा योद्धा मुगलों से संघर्ष कर रहे थे, तब हथियारों की कमी के कारण स्थानीय ग्रामीणों ने एक अनोखा उपाय खोज निकाला। उन्होंने सूखे फल ‘हिंगोट’ में बारूद भरकर उसे देसी बम की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया। यह हथियार न केवल आत्मरक्षा का माध्यम बना, बल्कि धीरे-धीरे मराठा वीरता का प्रतीक बन गया। कालांतर में जब युद्ध थम गए, तो यह परंपरा लोक-उत्सव में बदल गई। आज भी लोग मानते हैं कि यह आयोजन उस समय की वीरता और सामूहिकता का प्रतीक है, जब गांवों ने बाहरी आक्रमणों का सामना मिलजुलकर किया था।स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि हिंगोट युद्ध किसी वैर या हिंसा का प्रतीक नहीं, बल्कि यह आस्था और साहस का उत्सव है। इसमें कोई विजेता या पराजित नहीं होता। दोनों दलों के योद्धा परंपरा के सम्मान में इस ‘युद्ध’ में भाग लेते हैं और अंत में एक-दूसरे को गले लगाकर भाईचारे का संदेश देते हैं। यही इस आयोजन की सबसे बड़ी खूबसूरती है; जहां आग जलती है, पर नफरत नहीं; जहां बारूद फूटता है, पर रिश्ते नहीं। हालांकि, इस परंपरा का रोमांच जितना आकर्षक है, उतना ही जोखिमभरा भी। 2017 में इस आयोजन के दौरान एक युवक की मौत के बाद मामला मध्य प्रदेश हाई कोर्ट तक पहुंचा। दायर जनहित याचिका में कहा गया कि हिंगोट युद्ध अमानवीय है और इसमें भाग लेने वालों की जान को गंभीर खतरा रहता है।

याचिका में यह तर्क दिया गया कि जिस प्रकार तमिलनाडु के पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू पर सुरक्षा कारणों से अस्थायी रोक लगी थी, वैसे ही इस आयोजन पर भी नियमन जरूरी है। अदालत ने इस पर राज्य सरकार और प्रशासन से जवाब मांगा, और निर्देश दिया कि आयोजन के दौरान पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। तभी से हर वर्ष प्रशासन युद्ध स्थल पर पुलिस, चिकित्सा दल, एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड की तैनाती करता है। इस बार भी करीब 200 से ज्यादा पुलिसकर्मी मौजूद थे और दर्शकों की सुरक्षा के लिए 15 फीट ऊंचे बैरिकेड लगाए गए थे। स्थानीय प्रशासन का कहना है कि यह आयोजन जनभावनाओं से जुड़ा है, इसलिए रोकने की बजाय इसे नियंत्रित स्वरूप में आयोजित किया जा रहा है।

यह क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान उल्‍लेखनीय है कि हिंगोट युद्ध अब सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं है, यह क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है। हर साल पड़वा के दिन गौतमपुरा और आसपास के गांवों में बाजारों की रौनक बढ़ जाती है। लोग हिंगोट बनाने के लिए महीनों पहले तैयारी शुरू करते हैं। इन हिंगोटों को बारूद, धागों और धातु के सिरों से सुसज्जित किया जाता है। युवाओं में इसे वीरता की परीक्षा माना जाता है। आयोजन के दौरान स्थानीय होटल, दुकानों और परिवहन सेवाओं की आय में भी भारी बढ़ोतरी होती है। अनुमान है कि केवल दो दिन में गौतमपुरा क्षेत्र में लाखों रुपये का स्थानीय व्यापार होता है।

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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