हिंदी सिनेमा के बेबाक और साहसी फिल्म मेकर अनुराग कश्यप एक बार फिर दर्शकों के सामने अपनी नई फिल्म 'निशानची' के साथ लौट आए हैं। सालों से उन्होंने ऐसे किरदारों और कहानियों को पर्दे पर जीवंत किया है, जो अक्सर अनकही और असामान्य होती हैं। उन्होंने कठिनाइयों और आलोचनाओं के बीच हमेशा अपने दृष्टिकोण और शैली पर अटल रहते हुए सिनेमा को नए आयाम दिए। उनके शब्दों में भावनाओं की गहराई और अनुभवों की सच्चाई झलकती है, वो अपने करियर की चुनौतियों, इंडस्ट्री की जटिलताओं और फिल्म निर्माण की अदृश्य मेहनत को बेबाकी से शेयर करते हैं।
अनुराग कश्यप ने 'हिन्दुस्तान समाचार' के साथ खास बातचीत की, जिसमें उन्होंने न केवल फिल्म 'निशानची' के निर्माण और कहानी के पीछे के संघर्ष के बारे में खुलकर बात की, बल्कि अपने सिनेमा के सफर को भी शेयर किया।
Q. ऐश्वर्य ठाकरे 'निशानची' का हिस्सा किस तरह बने?
मैंने एक बार ऐश्वर्य की शो-रील देखी थी। उसमें उसने मनोज बाजपेयी की फिल्म शूल का मोनोलॉग किया था। उस समय मुझे ये भी नहीं पता था कि वह बाल ठाकरे के परिवार से ताल्लुक रखता है। मैंने उसे बुलाया और स्क्रिप्ट पढ़ने के लिए दी। मैंने कहा, बस पढ़ो और रिएक्ट करो। उसने तुरंत पढ़ा और बोला,सर, बताइए, आप मुझसे क्या चाहते हैं? बबलू करूं या डब्लू? तब मैंने उससे कहा, तुझे कनपुरिया बनना है। पूरा कनपुरिया। और जब उसने बबलू का किरदार पकड़ा तो सचमुच एकदम सड़कछाप कनपुरिया बन गया। दूसरा भाई यानी डब्लू पढ़ा-लिखा है, तो दोनों किरदारों में अच्छा कॉन्ट्रास्ट बन गया। मैंने उसे साफ-साफ कहा था, अगर तुम इस फिल्म से पहले कोई और फिल्म कर लोगे और वो गलत निकल गई तो शायद मेरी फिल्म को प्रोड्यूसर ही न मिले। नए एक्टर के साथ फिल्म बनाना वैसे ही मुश्किल है। उसने यह बात समझी और पूरे दो साल तक मेहनत की। फिर शूटिंग शुरू होने से छह महीने पहले मैंने उसे बताया कि ये डबल रोल है और दोनों किरदार वही करने वाला है। तब तक मैं उसकी रेंज देख चुका था और मुझे यकीन था कि वह इसे बखूबी निभा लेगा। सच कहू तो, इंडस्ट्री में अब तक जितने भी युवा कलाकारों के साथ मैंने काम किया है, उनमें यह अब तक का सबसे बेहतरीन डेब्यू है।
Q. आपकी फिल्मों में महिला किरदार हमेशा बेहद सशक्त और प्रभावी दिखाई देते हैं। इसकी कोई खास वजह है?
मुझे हमेशा ज़िंदगी की जटिलताएं आकर्षित करती हैं। गर्ल नेक्स्ट डोर वाली इमेज मुझे कभी समझ नहीं आई, क्योंकि मैंने अपने आसपास ऐसी औरतों को देखा है, जो अक्सर मर्दों से कहीं ज़्यादा मज़बूत रही हैं। मुझे अपनी दादी याद हैं, वे घर की असली स्तंभ थीं, सबकुछ संभालती थीं। मेरी मां की याद और भी गहरी है, सिर्फ़ 18 साल की उम्र में वे मुझे गोद में लेकर घर संभालती थीं और खेतों की देखभाल भी करती थीं। उसी समय मेरे पिता पावर हाउस सेट करते थे। इन अनुभवों ने मुझे सिखाया कि असली ताक़त और हिम्मत औरतों में होती है, लेकिन अफ़सोस, आजकल की फ़िल्मों में ऐसे किरदारों की कमी दिखती है। शायद यही वजह है कि मेरी कहानियों में महिला पात्र हमेशा मजबूत, जटिल और असलियत से जुड़े हुए नजर आते हैं।
Q. क्या 'निशानची' वास्तव में 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से प्रेरित फिल्म है?
बहुत से लोग पहली नजर में 'निशानची' को 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की तरह समझने लगते हैं, लेकिन असलियत इससे बिल्कुल अलग है। यह फिल्म वासेपुर से उतनी ही दूर है, जितनी दूरी कानपुर और वासेपुर के बीच है। 'निशानची' की कहानी 1986 से शुरू होकर 2016 तक फैली हुई है। यानी यह तीन दशकों का लंबा सफर तय करती है, जिसमें समाज, राजनीति और अपराध की बदलती तस्वीर दिखाई गई है। फिल्म की कहानी महज किसी एक गैंगवार या किसी खास इलाके तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह समय के साथ बदलते हालात और पीढ़ियों को जोड़ती है। यही वजह है कि इसे सीधे-सीधे 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' से तुलना करना न सिर्फ गलत होगा, बल्कि फिल्म के असली कैनवास और गहराई को छोटा कर देना होगा। ‘निशानची’ अपनी अलग दुनिया, किरदारों और कथानक के जरिए सामने आती है, जो इसे एक स्वतंत्र और मौलिक पहचान देती है।
Q. ट्रेंड्स और तकनीक के साथ बने रहने के लिए आपकी क्या रणनीति है?
देखिए, एक वक़्त के बाद एक फिल्म मेकर अपनी फिल्मों में लगभग हर तरह की तकनीक इस्तेमाल कर चुका होता है। ऐसे में अगर आपको अच्छा और ताज़ा काम करते रहना है, तो ज़रूरी है कि आप खुद को युवा पीढ़ी से जोड़ें। मैं भी यही करता हूं, मैं युवाओं के साथ काम करता हूं और उन्हें इम्पॉवर करने की कोशिश करता हूं। उदाहरण के तौर पर मैं अपने कैमरामैन से कहता हूं कि वह खुद तय करे किस कैमरे पर शूट करना है और किस तरीके से करना है। इससे उसमें आत्मविश्वास आता है और उसकी रचनात्मकता भी खुलकर सामने आती है। मेरा मानना है कि हर इंसान अपना बेस्ट देना चाहता है, लेकिन कई बार हालात या फिर बॉस की पाबंदियां उसे रोक देती हैं। अगर आप इन रुकावटों को हटा दें, तो हर इंसान अपने काम का सर्वश्रेष्ठ दे सकता है। इसी सोच के साथ मैं हमेशा ऐसे अच्छे और जुनूनी लोगों को अपनी फिल्मों से जोड़ता हूं। यही मुझे न सिर्फ़ समकालीन बनाए रखता है, बल्कि मेरे काम में एक नई ऊर्जा और ताजगी भी भरता है।
Q. हमेशा नए एक्टर्स और टैलेंट्स को मौका देने के पीछे आपकी सोच क्या है?
मैं मानता हूं कि एक फिल्म की असली ताक़त उसके किरदारों और कलाकारों में होती है। इसलिए मैं नए और उभरते कलाकारों को हमेशा मौका देता हूं। मैं उन्हें पूरी तैयारी करने का अवसर देता हूं और उन्हें होमवर्क देता हूं, ताकि वे अपने किरदार को पूरी तरह समझें और उसमें डूबकर अभिनय कर सकें। मेरी फोकस हमेशा यह होती है कि एक्टर्स अच्छे से प्रिपेयर रहें। मैं उनके साथ लगातार काम करता हूं, उन्हें मार्गदर्शन देता हूं, साथ ही मैं अपने काम में लगा रहता हूं और उन्हें स्वतंत्र रूप से खुद को एक्सप्लोर करने देता हूं। इससे नई ऊर्जा और ताजगी फिल्म में आती है और कलाकार भी अपने बेस्ट वर्शन को स्क्रीन पर ला पाते हैं।
Q. काफी अरसे बाद आपकी कोई फिल्म इतनी चर्चा में है। क्या रिलीज को लेकर आप नर्वस महसूस कर रहे हैं?
सच कहूं तो मैं रिलीज़ के समय ज़्यादातर गायब ही हो जाता हूं। उस दौरान मुझे भीड़-भाड़, तनाव या लगातार अपडेट्स लेने की आदत नहीं है। मैं बस फिल्म के निर्माताओं से पूछ लेता हूं कि कैसा चल रहा है? और फिर अपने काम में लग जाता हूं। मैं बॉक्स ऑफिस के फेर में पड़ने वालों में से नहीं हूं। हां, एक हद तक उसकी अहमियत होती है, लेकिन मेरे लिए असली जीत यह है कि फिल्म अपनी कहानी और भावनाओं से दर्शकों तक पहुंच पाए। 'निशानची' बहुत कम बजट में बनाई गई फिल्म है, इसलिए दबाव या नर्वसनेस से ज़्यादा मुझे संतोष है कि इसने चर्चा तो जरूर पैदा की है। मेरे लिए यह मायने रखता है कि दर्शक सिनेमाघर से निकलते समय किरदारों और कहानी को याद रखें, न कि सिर्फ़ यह कि पहले दिन या पहले हफ़्ते में
कितनी कमाई हुई।
Q. क्या आप 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' का तीसरा पार्ट बनाने की सोच रहे हैं?
नहीं, मैं रीमेक या सीक्वल बनाने में यक़ीन नहीं करता। हां, आज भी मुझसे सबसे ज़्यादा सवाल वासेपुर को लेकर ही पूछे जाते हैं, लेकिन जब वह फिल्म रिलीज़ हुई थी, तो लोग ऐसे पीछे पड़ गए थे जैसे उससे पहले तक हिंदुस्तान में कभी गाली नहीं बोली जाती थी, मानो गाली देना उसी फिल्म ने सिखाया हो। असल में वासेपुर नॉर्थ इंडिया का एक रियलिस्टिक चित्रण था, वहां की ज़मीन, वहां के लोग और उनकी ज़िंदगी का आईना। इसीलिए वह फिल्म आज भी चर्चा में रहती है। अक्सर लोग उसकी तुलना मिर्ज़ापुर वेब सीरीज़ से करते हैं, लेकिन सच कहूं तो मिर्ज़ापुर वैसा नहीं है। वासेपुर अपने समय, अपने समाज और अपनी सच्चाई से निकली हुई फिल्म थी और उसकी जगह कोई और चीज नहीं ले सकती।
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हिन्दुस्थान समाचार / लोकेश चंद्र दुबे