एक देश एक चुनाव

05 Oct 2023 16:51:43

One Nation One election
 
लोकसभा, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों का चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं एवं सुझावों के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। इसके साथ ही इसकी आलोचना भी शुरू है, वह भी बिना सही-गलत पर मंथन किए।
लोकसभा चुनाव में अभी कुछ महीनों का समय शेष है। करीब छह से सात महीने का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ‘एक देश एक चुनाव’ पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है। इस फैसले का समाचार सार्वजनिक होते ही विपक्षी दलों की तरफ से आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। नेताओं का बयान खबरिया चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मस पर सुर्खियां बनने लगा। किसी ने इस फैसले को संघवाद पर हमला बताया। किसी ने तानाशाही फैसला। किसी ने लोकतंत्र पर हमला तो कोई बोला क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने की साजिश। किसी ने यहां तक कह दिया कि हर तीन महीने में चुनाव करवा लो। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा, ‘यह देश और राज्य दोनों पर हमला है।’ इन विपक्षी दलों के हमलों में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का सवालनुमा जवाब आया। क्या इस देश में पहले कभी लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव नहीं हुआ है? जब ऐसा होता था तो क्या उससे लोकतंत्र खत्म हो गया, पार्टियां खत्म हो गर्इं या राज्य पर हमला किया गया था।
दरअसल, आजादी के बाद दो दशकों तक देश में एक साथ चुनाव होता था। यानी लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ होता था। 1951-52 में पहला चुनाव हुआ था। उसके बाद 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव अधिकांशत: एक साथ कराए गए थे। 1968 और 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कुछ राज्य सरकारों को भंग कर दिया और 1970 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ। तब से यह चक्र टूट गया। लेकिन यह चक्र टूटने के 13 साल बाद (1983 में) चुनाव आयोग ने एक बार फिर से सभी चुनाव साथ-साथ कराने का विचार तत्कालीन केंद्र सरकार को दिया। इसके लिए आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सात प्रमुख कारण बताए। मुख्य कारण सरकारी खर्चों में काफी कमी और धन की बचत बताया गया था। सुरक्षा बलों पर कार्य बोझ कम करना एवं प्रशासनिक कर्मचारियों और अधिकारियों को विकास कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना जैसे कारण बताए गए थे। चुनाव आयोग ने जब यह रिपोर्ट सौंपी थी तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। आयोग की इस रिपोर्ट पर तब कोई कार्रवाई नहीं की गई।
पहले भी और आज भी एक साथ चुनाव कराने के लिए मुख्य कारण यही बताया जाता है कि इससे धन की बचत होगी। न केवल सरकार की बल्कि राजनीतिक दलों की भी। उम्मीदवार भी कम खर्च में चुनाव लड़ लेंगे। क्योंकि एक पार्टी के सांसद और विधायक उम्मीदवार एक साथ चुनाव प्रचार कर लेंगे। कार्यकर्ताओं पर होने वाला खर्च भी बचेगा। लोकसभा चुनाव का खर्च केंद्र और विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य सरकार उठाती है। जब कभी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ होता है तब केंद्र और राज्य दोनों खर्च करते हैं। लॉ कमीशन ने 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके आसपास हुए कुछ विधानसभा चुनावों के खर्च पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के खर्च का अध्ययन किया गया। इसमें महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली शामिल हैं। इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के दौरान जितना खर्च हुआ था लगभग उतना ही विधानसभा चुनावों में भी हुआ। मसलन, लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में 487 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। वहीं विधानसभा चुनाव में 462 करोड़ रुपये खर्च हुआ था।
नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय और किशोर देसाई ने जनवरी 2017 में एक वर्किंग पेपर तैयार किया था। उस पेपर में बताया गया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने 1115 करोड़ तथा लोकसभा चुनाव 2014 में लगभग 3870 करोड़ रुपए खर्च किया था। यह खर्च चुनाव के लिए विभिन्न व्यवस्थाओं पर सरकार द्वारा किया गया था। इसी प्रकार 2019 के लोकसभा चुनावों में करीब 5500 करोड़ रुपए सरकार द्वारा खर्च हुआ था। इसमें राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों का खर्च शामिल नहीं है। यदि उनके अनुमानित खर्च को इसमें जोड़ा जाए तो यह कई गुना और बढ़ जाता है। कुछ गैर सरकारी संस्थानों की रिपोर्टों को मानें तो 2019 के लोकसभा चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इसमें सभी का खर्च शामिल है। वहीं जब इसकी तुलना पहले लोकसभा चुनाव से की जाए तो खर्च का आंकड़ा आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ा है। पहले लोकसभा चुनाव (1951-1952) में कुल खर्च करीब 11 करोड़ रुपये हुआ था।

Ramnath Kovind 
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह इस पर बताते हैं, 'इसमें कोई दो राय नहीं है कि इससे सभी का धन बचेगा। सरकार का, राजनीतिक दलों का, उम्मीदवारों का भी। चुनाव सुधार के तहत एक महत्वपूर्ण पहल चुनाव में धनबल को कम करना भी तो है।' वे आगे कहते हैं कि चुनावों में कालेधन का बहुत इस्तेमाल होता है। इससे इस पर भी बहुत हद तक लगाम लगेगी। सिर्फ यही नहीं चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों पर भी बहुत ज्यादा तनाव और दबाव होता है। पिछले लोकसभा चुनावों में सुरक्षा बलों की तैनाती को देखें तो अर्द्धसैनिक बलों की 450-500 कंपनी की तैनाती हुई थी। प्रत्येक कंपनी में 100 से 125 जवान एवं अधिकारी होते हैं। पिछले चुनावों में इनकी कंपनियों को 78 दिनों तक एक स्थान से दूसरे स्थान पर शिफ्ट किया गया था। इस तरह हजारों सुरक्षा कर्मी भी साल में दो-तीन बार चुनाव होने पर अधिकांश समय इससे तनावग्रस्त रहते हैं। इनकी छुट्टियां रद्द कर दी जाती हैं। तनाव के कारण कई बार चुनाव ड्यूटी के दौरान सुरक्षाकर्मी आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लेते हैं।
राज्यसभा सांसद प्रो. राकेश सिन्हा बताते हैं कि संसद की स्थायी समिति ने भी एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। यह सिफारिश स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट में की गई है। हास्यास्पद यह है कि जो कांग्रेस आज इसके विरोध में बोल रही है, एक देश एक चुनाव की सिफारिश करने वाली स्थायी समिति के अध्यक्ष उसी कांग्रेस के नेता एवं सांसद ईएम सुदर्शन नचियप्पन थे। उनकी रिपोर्ट में कहा गया था कि एक साथ चुनाव कराने से हर साल इस पर होने वाले भारी खर्च कम होंगे और चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता लागू होने से प्रशासनिक एवं विकास कार्यों पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को दूर किया जा सकता है।
विपक्षी दलों की आलोचनाओं के बीच पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी ने पहली बैठक 23 सितंबर को की। इस बैठक में लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी को छोड़कर बाकी सभी सदस्यों ने हिस्सा लिया। पहली बैठक के कमेटी की ओर से बताया गया है कि किसी भी सुझाव से पहले देश भर के मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय दलों से भी सुझाव लिए जाएंगे। इन दलों के साथ विस्तार से चर्चा की जाएगी। साथ में विधि आयोग को भी सुझाव के साथ आमंत्रित किया जाएगा। अब देश को इस कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार है।
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