शरद पवार की बाजीगरी के मायने

युगवार्ता     18-May-2023   
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शरद पवार की पार्टी में छिड़ा उत्तराधिकार का संघर्ष ऐसा मोड़ ले रहा है जिससे पार्टी के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसी चुनौती से जूझते हुए शरद पवार ने अपनी बाजीगरी का रूप दिखाया। यह उनके लिए कोई नई बात नहीं है। नई बात दूसरी है। जिस मराठा राजनीति पर शरद पवार का एकक्षत्र अधिकार था, उस पर उनके कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गए हैं। जो नेता अपनी पार्टी नहीं संभाल सकता वह विपक्ष को क्या खाक एक करेगा!

शरद पवार  
किसी कद्दावर राजनीतिक नेता के लिए ‘नाना फड़नवीस’ ऐसा विशेषण है जो उसके असाधारण होने का परिचायक है। जनता शासन के दौरान नाना जी देशमुख को उनके विरोधी इसी विशेषण से पहचानते थे। उसी दौर में शरद पवार का राष्‍ट्रीय स्तर पर उदय हुआ। कांग्रेस पार्टी को महाराष्‍ट्र में तोड़ा। जनता पार्टी से गठजोड़ कर 1978 में शरद पवार ने महाराष्‍ट्र में सरकार बनाई। वे पहली बार राष्‍ट्रीय राजनीति में उभरे। हर मुख्यमंत्री अपने आप में राष्‍ट्रीय राजनीति के आकाश का एक तारा बन जाता है। क्या शरद पवार दूसरे ‘नाना फड़नवीस’ हैं? ऐसा ही उन सब को लगता है, जो उनकी राजनीति को समझते हैं। उनकी राजनीति एक पहेली है। जिसे वे ही उलझाते हैं और फिर उसमें से रास्ता निकालकर लोगों को चकित भले न करते हों, पर हैरान जरूर करते हैं। अक्सर उनके बारे में जो अनुमान लगाया जाता है वह सही नहीं होता। कई बार शरद पवार भी अपने बारे में जो सोचते हैं, वह वैसे ही घटित नहीं होता। आश्‍चर्य यह नहीं है, इस बात पर है कि शरद पवार जो सोचते हैं वह क्या कोई दूसरा समझ पाता है!
कौन मानता था कि शरद पवार अपना इस्तीफा वापस ले लेंगे। जो व्यक्ति 63 साल से राजनीति में है वह अचानक घर बैठेगा और आराम करेगा! यही वह पहेली है जो लोगों के लिए कुछ दिनों तक बनी रही। इस दौरान अनेक दावेदार उभरे। अपना इस्तीफा वापस लेकर उन्होंने बहुतों की उम्मीद पर पानी फेर दिया। विपक्ष को थोड़ी राहत दी। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक और पैना हथियार उन्होंने क्या अनजाने में सौंपा है? जो उत्तराधिकार के दावेदार थे वे पुन: इंतजार की कतार में खड़े हो गए हैं। अटकल तो उसी दिन से शुरू हो गई थी, जब उन्होंने इस्तीफे की घोषणा की। यह बात 2 मई की है। अवसर भी कुछ खास था। शरद पवार जब 75 के हुए तो उनकी एक आत्मकथा आई। वह मराठी में थी। उसे हिन्दी में कहेंगे, ‘लोग मेरे साथी’। आज वे 82 के पार हैं। उस दिन इसी का मराठी संस्करण सुधरे हुए रूप में आया।
उसके लोकार्पण का अवसर था। पूरी पार्टी और समर्थक उपस्थित थे। माहौल भी जश्‍न का था। उसे ही उन्होंने अपने वनवास के आत्मनिर्णय की घोषणा के लिए चुना। क्या शरद पवार की विचित्र राजनीति का इससे बढ़िया उदाहरण मिलेगा? जिन्होंने उस अवसर को अपनी आंखों से देखा है, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि उसका पटाक्षेप इस तरह होगा। तीन दिनों तक उहापोह बना रहा। आखिरकार 6 मई को इस्तीफा वापस लेकर उन्होंने एक नई घोषणा कर दी कि वे विपक्षी एकता के लिए साझा कार्यक्रम बनवाएंगे। अपने कहे को नकारने के लिए उन्होंने एक बहाना बनाया कि पार्टी ने उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया। सच यह है कि शरद पवार ही एनसीपी हैं। साफ है कि वे अपने फैसले से ही राजनीति में बने रहेंगे और अपने होने का अनुभव कराते रहेंगे। इरादा तो यही है। लेकिन वे नहीं जानते कि समय बदल गया है। राजनीति में आज शरद पवार के मायने क्या हैं? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब शरद पवार के पास भी नहीं है। लेकिन वे अपने होने का अनुभव अवश्‍य शुरू से ही करा रहे हैं, जब से राजनीति में उन्‍होंने कदम रखा। वह साल 1960 था। लेकिन यह तो 2023 का साल है।
इसका दायरा पहले स्थानीय था। अब बहुत सालों से राष्‍ट्रीय है। समय भी बहुत लंबा गुजरा है। उनकी राजनीतिक यात्रा बहुत पहले शुरू हुई थी। संभवत: राजनीति में वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी और उसे पुन: संशोधित कराया। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि राजनीति के बिल्कुल नए मोड़ पर उन्हें खड़ा होना पड़ा। उसकी कल्पना उन्होंने भी नहीं की होगी। लेकिन जो शरद पवार को जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि उनके लिए सत्ता सर्वोंपरि है। सिद्धांत को वे सत्ता के हिसाब से रंग देते हैं। राजनीति उनके लिए वह रेखाचित्र है जिसमें समय और उनकी सत्ता की हमजोली से रंग बदलता रहता है। इसे उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत से देख सकते हैं। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने जो उल्लेख किए हैं, वे भी इसकी गवाही देते हैं।
कांग्रेस के वे युवा विधायक बने। यशवंत राव चव्हाण ने उन्हें बारामती से उम्मीदवार बनाया था। महाराष्‍ट्र राज्य के बनने के 7 साल बाद की बात है। याद रखें कि महाराष्‍ट्र राज्य 1960 में अस्तित्व ग्रहण कर सका। उन दिनों गैर कांग्रेसवाद की हवा थी। लेकिन महाराष्‍ट्र में कांग्रेस का परचम लहरा रहा था। यशवंत राव चव्हाण को वे अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं। चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी में गुरु और गुरुघंटाल का संबंध था। चंद्रशेखर उन्हें गुरु कहते थे और वाजपेयी जी चंद्रशेखर को गुरुघंटाल। क्या शरद पवार अब गुरुघंटाल के पद पर विराजमान हैं? अतीत की गवाहियां सब को याद है। उसे अक्सर रेखांकित भी किया जाता है। जब शरद पवार ने कांग्रेस तोड़कर महाराष्‍ट्र में मुख्यमंत्री पद प्राप्त किया था तब यशवंत राव चव्हाण ने दिल्ली में जनता शासन को एक नाटकीय घटनाक्रम में समाप्त करने का श्रेय पाया।

“शरद पवार निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के प्रतीक हैं। उनके ही रास्ते पर चलकर अजित पवार महाराष्‍ट्र के मुख्यमंत्री होना चाहते हैं। वे फिलहाल दूसरी बार अजित पवार को भाजपा खेमे में जाने से रोक पाए हैं। लेकिन यह भी साफ हो गया है कि शरद पवार का प्रभाव अपने परिवार पर भी नहीं है। ऐसे शरद पवार कैसे विपक्ष को एक करेंगे और क्या साझा कार्यक्रम बना पाने में सफल होंगे?”

ऐसे ही जब सोनिया गांधी अपनी खोल से बाहर आईं और 1999 में वाजपेयी सरकार के गिरने के बाद उन्होंने बहुमत का झूठा दावा पेश किया तब शरद पवार ने अपनी कांग्रेस बनाई। वह कांग्रेस शरद पवार कहलाई। उसे आजकल एनसीपी कहते हैं। यही नाम चलन में है। उसका पूरा नाम है, राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। यह ऐसी पार्टी है जिसमें अध्यक्ष नहीं बदलता। ढाई दशक से शरद पवार इसके अध्यक्ष हैं। उसी पद से इस्तीफा देकर उन्होंने एक राजनीतिक बवंडर उत्पन्न कर दिया। सवाल है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसका जवाब शरद पवार ने ही दे दिया है। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने लिखा है कि उनके जीवन में कामा तो आ सकता है पर पूर्णविराम नहीं होगा। इसे ही उन्होंने अपनी घोषणा और उसे पलटकर सिद्ध किया।
शरद पवार की पार्टी में छिड़े उत्तराधिकार का संघर्ष ऐसा मोड़ ले रहा है जिससे उसके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसी चुनौती से जूझते हुए शरद पवार ने अपनी बाजीगरी का रूप दिखाया। यह उनके लिए कोई नई बात नहीं है। नई बात दूसरी है। जिस मराठा राजनीति पर शरद पवार का एकक्षत्र अधिकार था, उस पर उनके कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गए हैं। जो नेता अपनी पार्टी नहीं संभाल सकता वह विपक्ष को क्या खाक एक करेगा! जिस प्रकार 1978 में शरद पवार ने वसंत दादा पाटिल की सरकार गिरा दी, उसी तरह एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे की सरकार गिराकर शरद पवार को हासिए पर डाल दिया। जो शरद पवार महाराष्‍ट्र में विधाता समझे जाते थे, उन्हें एकनाथ शिंदे ने आइना दिखा दिया। दूसरी तरफ अजित पवार हैं, जो अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए भाजपा से हाथ मिलाने के लिए उतावले हैं। जिस दिन शरद पवार ने इस्तीफे की घोषणा की उस दिन अजित पवार कहां थे, यह सबसे अधिक पूछा जाने वाला सवाल बन गया था। इस्तीफे की वापसी पर अजित पवार ने मीडिया को बताया कि वे दिल्ली नहीं गए थे। यह सफाई उन्होंने क्यों दी? इसी में वह रहस्य है जो सिर्फ शरद पवार क्या जानते हैं?
क्या शरद पवार विपक्षी एकता के सूत्रधार हो सकते हैं? विपक्षी एकता किसलिए होगी? क्या 2024 का लोकसभा चुनाव विपक्ष इसलिए एकजुट होकर लड़ेगा कि भ्रष्‍टाचार के खिलाफ देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभियान छेड़ दिया है? क्या भ्रष्‍टाचार करने और रोकने का सवाल चुनावी मुद्दा होगा? एक बार भ्रष्‍टाचार चुनावी मुद्दा बन गया था। वह 1989 का चुनाव था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। उन पर बोफोर्स सौदे में दलाली के आरोप थे। जो भी आरोप थे वे उन पर चिपक गए थे। परिणाम स्वरूप विपक्ष को उम्मीद दिखी और जो असंभव दिखता था वह विपक्षी एकता संभव हो सकी। लेकिन उसके लिए विपक्षी दलों से ज्यादा प्रयास जो उस समय हुए वे गैर राजनीतिक थे। शरद पवार साफ-सुथरी राजनीति के लिए जाने नहीं जाते हैं। लेकिन बेमेल राजनीतिक गठजोड़ का कमाल वे दिखा सकते हैं। जैसे महाराष्‍ट्र में उन्होंने शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी का बेमेल गठजोड़ कराया और उसे महाविकास अघाड़ी नाम दिया। उसकी सरकार भी बनी। लेकिन चली नहीं। शरद पवार ऐसे ही गठजोड़ के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस बार उनके लिए विपक्षी एकता का अर्थ सिर्फ इतना है कि वे अपना अस्तित्व बचा लें।
शरद पवार निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के प्रतीक हैं। उनके ही रास्ते पर चलकर अजित पवार महाराष्‍ट्र के मुख्यमंत्री होना चाहते हैं। वे फिलहाल दूसरी बार अजित पवार को भाजपा खेमे में जाने से रोक पाए हैं। लेकिन यह भी साफ हो गया है कि शरद पवार का प्रभाव अपने परिवार पर भी नहीं है। ऐसे शरद पवार कैसे विपक्ष को एक करेंगे और क्या साझा कार्यक्रम बना पाने में सफल होंगे? यह सवाल इसलिए है क्योंकि कोई रोशनी सचमुच नहीं दिखती। शरद पवार घोषणा जो भी करें, पर उसका खोखलापन उजागर हो गया है।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।