योग के बिना गति नहीं

सियाराम पांडेय 'शांत'    20-Jun-2023
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yoga Shant
योग बल से ही ब्रह्मा जी संसार की रचना करते हैं। विष्णु संसार का पालन करते हैं और भूतभावन भगवान शिव संहार का दायित्व निभाते हैं। वैसे भी योग का सामान्य अर्थ है जोड़ना। जुड़ना किसी का भी हो, किसी भी रूप में हो, योग है। योग हो और उसकी परिणति न हो, ऐसा हरगिज मुमकिन नहीं है। व्यक्तियों के योग से ही समाज, गांव, तहसील, विकास खंड, जिला, प्रदेश, देश और संसार का निर्माण होता है। मतलब संसार के निर्माण का आधार ही योग है। एक से अनेक होना और अनेकता में भी ऐक्य का प्रकटीकरण योग से ही संभव है। बूंद-बूंद के योग से जलस्रोत निर्मित होते हैं। नदियों के मिलान से सागर और महासागर बनते हैं। मिलना जीव का ईश्वर से ही, या मन का आत्मा से, अपने आप में योग है। संसार में जो कुछ भी सुखमय या दुखमय नजर आ रहा है, वह सब योग ही है। पंचभूतों से निर्मित मानव शरीर भी योग ही है। इतना सब जानने के बाद भी लौकिक जीवन में योग की उपेक्षा समझ से परे है।
योग आलस्य का सबसे बड़ा शत्रु है। आलस्य यानी मार्गावरोध। आलस्य यानी विकास के राह की बाधा। इस तरह से देखा जाए तो योग विकास का सबसे बड़ा कारक है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यूं तो 18 योगों व विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञान कर्म संन्यास योग, कर्म सन्यास योग, आत्म संयम योग, ज्ञान-विज्ञान योग, अक्षरब्रह्मयोग, राजविद्याराजगु‘ योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुण त्रय विभाग योग, पुरुषोत्तम योग, देवासुरसम्पद विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग और मोक्ष संन्यास योग का मार्गदर्शन किया था। गीता का हर अध्याय एक योग है। विषाद योग से मोक्ष संन्यास योग तक की इस यात्रा में उन्होंने जिन तीन प्रमुख योगों पर ज्यादा जोर दिया है, वे हैं कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग। व्यक्ति का कर्म ही है जो उसे ज्ञानी भी बनाता है और भक्त भी। इसलिए लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म को सबसे बड़ा योग करार दिया है। व्यक्ति ही नहीं, इस जीव-जगत का हर कर्म ही योग है। कर्म ही है जिसकी बदौलत यह संसार गतिशील है।
प्राचीन गुरुकुल में आचार्य अपने शिष्यों को ध्यान के सभी अंग-उपांगों में पारंगत बना कर उसे शारीरिक और मानसिक धरातल पर न केवल सम्बल प्रदान करते थे,बल्कि उसके चिंतन और चरित्र को योगाभ्यास की आदर्श टकसाल में निखारते, तराशते और परिष्कृत करते थे, तब यह देश सोने की चिड़िया हुआ करता था। लेकिन जब से गुरुकुल बंद हुए और उसका स्थान लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति ने लिया, देश में योग के सभी अंग उपेक्षित हो गए और इसकी परिणिति यह हुई कि भ्रष्टाचार और कदाचार शिष्टाचार बनते चले गए। आदर्श और सिद्धांत धार्मिक पुस्तकों की विषयवस्तु बन कर रह गए। जो भारत विश्व वसुधा को अपना परिवार मानता था,वह निजता के द्वंद्व में कहीं खोता चला गया। क्षेत्र, भाषा, प्रान्त और धर्म के पचड़े में उलझ गया। सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया: का संदेश देने वाला भारतीय समाज स्वार्थों की चक्की में पिस रहा है। जो देश पूरी दुनिया को अप्प दीपो भाव का उपदेश करता था, उस देश के रहवासियों ने अपने भीतर झांकना बंद कर दिया है। यह सब अपनी संस्कृति और सभ्यता से कटने की वजह से हुआ है। जितनी जल्दी हम इस बात को समझेंगे, अतीत की भूलों को सुधारने में हम उतने ही सफल होंगे। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि आठ अंगों वाला योग आज केवल आसान और व्यायाम तक ही सिमट कर रह गया है।
“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 मे देश की कमान संभालने के साथ योग को दुनिया भर में लोकप्रियता प्रदान की। करो योग-रहो निरोग का नारा दिया। विचार किया जाना चाहिए कि जब योग का एक अंग आसान व्यक्ति को बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है। हमें स्वस्थ रखता है तो क्यों न हम योग के शेष सात और अंगों को अपनी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बनाए।”
 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 मे देश की कमान संभालने के साथ योग को दुनिया भर में लोकप्रियता प्रदान की। करो योग-रहो निरोग का नारा दिया। विचार किया जाना चाहिए कि जब योग का एक अंग आसान व्यक्ति को बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है। हमें स्वस्थ रखता है तो क्यों न हम योग के शेष सात और अंगों को अपनी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बनाए। योगदर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को योग के आठ अंग कहा गया है। इन आठ अंगों में पहले पांच को बहिरंग और शेष तीन धारणा, ध्यान, समाधि को अंतरंग कहा गया है। चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहने वाले महर्षि पतंजलि ने इन तीनों यानी धारणा, ध्यान और समाधि को संयम करार दिया है। त्रयमेकत्र संयम:। योगदर्शन में यम पांच प्रकार के बताए गए हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इसी तरह पवित्रता, संतोष, तप और ईश्वर प्रणिधान को नियम कहा गया है। स्थिर सुखमासनम। ऐसा आसन जिस पर सुख से लंबे समय तक बैठा जा सके।
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि कुर्यात्तदासनम स्थैर्यमारोग्यम चांगलाघवम। अर्थात आसनों के अभ्यास से स्थिरता, आरोग्य और शरीर की लघुता की प्राप्ति होती है। ज्ञान योग हो, कर्म योग हो, भक्ति योग हो, मंत्र योग हो, राजयोग हो अथवा हठयोग, आसन सबके लिए जरूरी है। यूं तो योग संहिता में चौरासी आसनों का जिक्र मिलता है लेकिन सिद्धासन और पद्मासन को साधना के लिए सुखकारी माना गया है। इसमें संदेह नहीं कि आसनों के अभ्यास से नदी समूह की मृदुता, सहनशीलता में वृद्धि , मन की एकाग्रता और प्राणतत्व का ऊर्ध्वगमन होता है। शरीर के अनेक रोग नष्ट होते हैं सो अलग। योग साधकों को अपनी सुविधा के अनुसार सिद्धासन, गुप्तासन, मुक्तासन, पद्मासन, भद्रासन, सिंहासन, स्वस्तिकासन, कुक्कुटासन, पश्चिमतानासन आदि करना चाहिए। इससे शरीर और मन के अनेक विकारों का सहज शमन हो जाता है। योग शास्त्र में प्राणायाम भी 9 तरह के बताए गए हैं। इसमें अनुलोम-विलोम, सूर्यभेदी, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भवानी, मूर्च्छा और प्लवनी शामिल है। अनुलोम विलोम से नसों का परिशोधन होता है। बल वृद्धि आती है और कफ, पित्त, वायु के बीच सामंजस्य-संतुलन स्थापित होता है। रेचक, कुम्भक और पूरक प्राणायाम के अभ्यास से हम अपनी सांसों और रक्त संचार पर नियंत्रण पा सकते हैं। अगर यह कहा जाए कि सम्पूर्ण संसार योगमय है। वह योगीश्वर शिव और योगेश्वर श्रीकृष्ण की योग लीला का विस्तार है तो कदाचित गलत नहीं होगा ।
संसार भगवान का कर्म है। यानी योग है। कर्म विसर्ग है अर्थात सृष्टि सृजन के अपने संकल्प को मूर्तमान करना। संसार में सफल होना है तो इसके लिए व्यक्ति का योगाभ्यासी होना जरूरी है। इसके बिना उसे अपनी इंद्रियों के सदुपयोग की युक्ति का भान नहीं होता। चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण पाए बगैर वह कार्य करने मं दक्ष नहीं हो सकता। इसलिए हर व्यक्ति को नियमित योगाभ्यास कर अपनी सुसुप्त चेतनाओं को जागृत करते रहना चाहिए और योग को अपनी कर्म कुशलता का माध्यम बनाना चाहिए।
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