पश्चिम में योग की अलख

कुमार कृष्णन    20-Jun-2023
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“भारत में योग की शक्तिदायी परंपरा हजारों साल की है। जिसे समय-समय पर सिद्ध योगियों ने सामान्य लोगों को सहजता से सिखा कर लोककल्याण का मार्ग ढूंढने में महान योगदान दिया। उन्हीं में से एक हैं, योगी विष्णु चरण घोष। योगगुरु बी.के.एस अयंगर को सबसे बड़ा योग गुरु माना जाता है। लेकिन अयंगर से लगभग तीन दशक पहले कोलकाता के एक योग गुरु विष्णुचरण घोष ने पश्चिमी दुनिया में योग को लोकप्रिय बनाया।”
विष्णु चरण घोष ने योग को लोकप्रिय बनाने के लिए यूरोप से जापान तक दुनिया के तमाम देशों का दौरा किया। वे मुख्य रूप से चिकित्सा के लिए योग का उपयोग करते थे। उन्होंने ही लगभग एक सदी पहले दुनिया को बताया था कि बीमारी को ठीक करने के लिए योग एक सशक्त माध्यम है।
भारत में योग की शक्तिदायी परंपरा हजारों साल की है। जिसे समय-समय पर सिद्ध योगियों ने सामान्य लोगों को सहजता से सिखा कर लोककल्याण का मार्ग ढूंढने में महान योगदान दिया। महायोगी विष्णु चरण घोष का जन्म लाहौर में 24 जून 1903 को हुआ था। वे भगवती चरण घोष के आठ बच्चों में सबसे छोटे थे और मुकुंद लाल घोष के भाई थे। मुकुंद लाल घोष आध्यात्मिक जगत में परमहंस योगानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उनके माता-पिता के गुरु लाहिड़ी महाशय थे जिन्होंने क्रिया योग सिखाया था 1930 के दशक के यूरोप और अमेरिका की कल्पना कीजिए। यह वह समय था जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। बंगाल क्रांतिकारी आंदोलनों का केंद्र था। योग का अभ्यास इन दिनों केवल शारीरिक फिटनेस के लिए ही नहीं किया जाता था बल्कि विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं के लिए भी किया जाता था। 1930 के दशक में घोष को इस ज्ञान के बारे में पता था। 1923 में उन्होंने कलकत्ता में शारीरिक शिक्षा कॉलेज की स्थापना की। उनका लेखन भारत में व्यायाम और आधुनिक योग के विकास में महत्वपूर्ण है।
उन्होंने 1946 में परमहंस योगानंद के जीवन पर ‘ऑटोबायोग्राफी आॅफ ए योगी’ लिखी। इस पुस्तक के अध्याय 27 में उस समय के एकीकृत बिहार और झारखंड की राजधानी रांची में योग विद्यालय की स्थापना की कहानी का जिक्र है। पुस्तक में परमहंस योगानंद कहते हैं-युवाओं के लिए सर्वांगीण शिक्षा का आदर्श हमेशा मेरे दिल के करीब रहा है। मैंने केवल शरीर और बुद्धि के विकास के उद्देश्य से साधारण शिक्षा के शुष्क परिणाम स्पष्ट रूप से देखे। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य के बिना कोई भी मनुष्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता है।मैंने एक ऐसा स्कूल खोजने की ठान ली जहां युवा लड़के मर्दानगी के पूर्ण कद तक विकसित हो सकें। उस दिशा में मेरा पहला कदम सात बच्चों के साथ बंगाल के एक छोटे से देश दिहिका में था।
एक साल बाद 1918 में कासिमबाजार के महाराजा सर मनिन्द्र चंद्र नंदी की उदारता के कारण मैं अपने तेजी से बढ़ते समूह को रांची स्थानांतरित करने में सफल हुआ। रांची में कासिमबाजार पैलेस को नए स्कूल के मुख्यालय में बदल दिया गया, जिसे मैंने ऋषियों के शैक्षिक आदर्शों के अनुसार ब्रह्मचर्य विद्यालय कहा।

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रांची में मैंने व्याकरण और हाई स्कूल ग्रेड दोनों के लिए एक शैक्षिक कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें कृषि, औद्योगिक, वाणिज्यिक और शैक्षणिक विषय शामिल थे। छात्रों को योग एकाग्रता और ध्यान तथा शारीरिक विकास की एक अनूठी प्रणाली, ‘योगदा’ भी सिखाई गई, जिनके सिद्धांत मैंने 1916 में खोजे थे।
यह महसूस करते हुए कि मनुष्य का शरीर एक इलेक्ट्रिक बैटरी की तरह है, मैंने तर्क दिया कि इसे मानव इच्छा की प्रत्यक्ष एजेंसी के माध्यम से ऊर्जा से रिचार्ज किया जा सकता है। चूंकि कोई भी कार्य, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, बिना इच्छा के संभव नहीं है।
मनुष्य अपने शरीर के ऊतकों को बिना किसी भारी उपकरण या यांत्रिक व्यायाम के नवीनीकृत करने के लिए अपने मुख्य प्रस्तावक, इच्छा का लाभ उठा सकता है। इसलिए मैंने रांची के छात्रों को अपनी सरल ‘योगदा’ तकनीक सिखाई, जिसके द्वारा मनुष्य के मेडुला आॅबोंगटा में केंद्रित जीवन शक्ति को ब्रह्मांडीय ऊर्जा की असीमित आपूर्ति से सचेत रूप से और तुरंत रिचार्ज किया जा सकता है। लड़कों ने इस प्रशिक्षण के जरिए शरीर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जीवन ऊर्जा को स्थानांतरित करने और कठिन शारीरिक मुद्राओं में सही मुद्रा में बैठने की असाधारण क्षमता विकसित की। उन्होंने ताकत और धीरज के ऐसे करतब दिखाए, जिनकी बराबरी कई ताकतवर वयस्क नहीं कर सकते थे। मेरे सबसे छोटे भाई, विष्णु चरण घोष, रांची स्कूल में शामिल हुए। उन्होंने और उनके छात्रों में से एक ने यूरोप और अमेरिका की यात्रा की। ताकत और कौशल की प्रदर्शनियां दीं जिसने न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय को चकित कर दिया।
रांची में प्रथम वर्ष की समाप्ति पर प्रवेश के लिए आवेदन दो हजार तक पहुंचे। लेकिन स्कूल उस समय पूरी तरह से आवासीय होने के कारण केवल एक सौ को ही समायोजित कर सकता था। विष्णु चरण घोष की मांसपेशियों पर नियंत्रण योगानंद की विधि योगदा से काफी प्रभावित था। इस विषय पर उनकी 1925 की पुस्तक ‘बॉडी परफेक्शन बाय विल’ में वर्णन है। उसमें उन्होंने मैक्सिक की मैक्सल्डिंग तकनीक का प्रयोग किया। यह वजन और मांसपेशियों के निर्माण के लिए विशेष उपकरण के उपयोग पर निर्भर करता है। इसमें जोड़ा हठ योग के पारंपरिक आसनों को। वे भारत में एक हठयोगी के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
1939 में घोष अमेरिका गए और कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयॉर्क में पढ़ाया। 1968 में वे जापान के व्याख्यान दौरे पर गए। कई देशों की यात्रा करने वाले घोष की टीम में बड़ी संख्या में युवा पुरुष और महिलाएं भी शामिल थीं। उन्होंने मोनोतोश रॉय को योग तथा शारीरिक शिक्षा की तालिम दी। वे एक भारतीय बॉडी बिल्डर थे जिन्होंने 1951 में एमेच्योर डिवीजन में मिस्टर यूनिवर्स का खिताब अपने नाम किया था। मिस्टर यूनिवर्स की उपाधि से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय और एशियाई थे।
विष्णु चरण घोष की शिष्या रेबा रक्षित हुईं जिन्होंने उनसे शरीर शौष्ठव और योग की बारिकीयां सीखीं। उन्होंने पूरी दुनिया में महिलाओं के बीच योग को लोकप्रिय बनाया। उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। बंगाल की यह योग कन्या रेबा रक्षित अपनी छाती से हाथी उतारने का महाबली करतब दिखातीं थीं। ऐसे महाबली कारनामों को देखकर उस समय के हैदराबाद के नवाब ने उन्हें ‘देवी चौधरानी’ की लोक उपाधि भी दी। सन 1950 के प्रारम्भ में उन्हें अपने शारीरिक सौष्ठव यानी बॉडीबिल्डिंग के लिए मिस बंगाल का एवार्ड भी मिला था।
भागलपुर में विष्णु चरण घोष के शिष्य योगीराज हरिदेव प्रसाद ठाकुर ने दीपनगर में भारतीय शारीरिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की। जापान सरकार ने योग के क्षेत्र में उनके योगदान के संदर्भ में 2017 में डाक टिकट भी जारी किया है। लॉस एंजिल्स में हर साल विश्व स्तर का वार्षिक योग चैंपियनशिप होता है। विजेता को विष्णु चरण घोष कप दिया जाता है। योग के आधुनिक युग में विष्णु चरण घोष का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित झारखंड की महुआ मांझी का अवार्ड विनिंग उपन्यास 'मैं बोरिशाइल्ला' में भी विष्णु चरण घोष की चर्चा सम्मान पूर्वक ढंग से की गयी है। 1939 में विष्णु चरण घोष अमेरिका गए और कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयॉर्क में पढ़ाया। 1968 में वे जापान के व्याख्यान दौरे पर गए। कई देशों की यात्रा करने वाले घोष की टीम में बड़ी संख्या में युवा पुरुष और महिलाएं भी शामिल थीं।
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