दिल्ली अध्यादेश पर कांग्रेस में फूट

05 Aug 2023 18:31:48
केंद्र के दिल्ली अध्यादेश पर कांग्रेस का केजरीवाल को समर्थन एक मजबूर पार्टी का निर्णय कहा जा रहा है। विपक्षी गठबंधन में केजरीवाल को लाने के लिए ऐसा किया गया लेकिन इससे कांग्रेस पार्टी में ही फूट पड़ गई। दिल्ली और पंजाब के नेताओं ने इसका विरोध कर दिया।

राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे
दिल्ली और पंजाब कांग्रेस के नेता शुरू से कहते आ रहे हैं कि अध्यादेश मसले पर पार्टी को केजरीवाल के साथ नहीं जाना चाहिए। इससे इन राज्यों में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस के वोट पर ही आप राजनीति कर रही है। वर्ष 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर ही प्रचंड बहुमत मिला। फिर 2020 के विधानसभा चुनाव में भी आप की कांग्रेस के वोट बैंक पर पकड़ बनी रही। वर्ष 2015 और 2020 के चुनाव में आप को क्रमश: करीब 54 एवं 53 फीसदी वोट मिला था। जबकि कांग्रेस करीब 4 फीसदी पर सिमट गई है। शीला दीक्षित के तीन कार्यकाल में कांग्रेस को सबसे कम 2008 के विधानसभा चुनाव में करीब 41 फीसदी वोट मिला था। वह भी तब जब उक्त चुनाव में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सत्तारूढ़ बसपा को यहां 14 फीसदी से ज्यादा वोट मिला था। 1998 और 2003 के चुनाव में कांग्रेस को 48 फीसदी के करीब वोट मिला था। भाजपा के वोट बैंक में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। 1998 में पार्टी को करीब 34 फीसदी वोट मिला था तो वहीं 2020 में 38 फीसदी से ज्यादा वोट मिला। यानी भाजपा के वोट बैंक में वृद्धि ही हुई है। जबकि कांग्रेस 2020 में 4 फीसदी पर सिमट गई।
इस साल नगर निगम के हुए चुनाव से कांग्रेस के नेताओं को उम्मीद जगी थी, क्योंकि निगम चुनाव में पार्टी को अपना वोट बैंक वापस आने के संकेत मिले थे। खासकर दिल्ली के अल्पसंख्यक वोटर ने कांग्रेस को वोट दिया था। इस चुनाव में कांग्रेस के 9 पार्षद जीते। सभी के सभी मुस्लिम बहुल इलाके से जीते हैं। निगम चुनाव में कांग्रेस को 11 फीसदी वोट मिला है। निगम चुनाव के बाद से दिल्ली कांग्रेस अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम कर रही थी। लेकिन अब अध्यादेश पर आप को समर्थन देकर कांग्रेस ने फिर से दिल्ली में आप के सामने घुटने टेक दिए हैं। जबकि दिल्ली कांग्रेस के नेता अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं आलाकमान के सामने समर्थन न देने की गुजारिश कर चुके थे। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मिलने के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया। अरविंद केजरीवाल का समर्थन क्यों नहीं करना चाहिए, इस पर वे खुलकर बोले। उन्होंने लिखा ‘केजरीवाल का समर्थन नहीं करने के राजनीतिक, कानूनी और प्रशासनिक तीनों कारण हैं।’

संदीप दीक्षित और अजय माकन 
माकन राजनीतिक कारण गिनाते हुए कहते हैं, ‘केजरीवाल ने पिछले दिनों भाजपा से मिलकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दिया गया भारत रत्न वापस लेने का एक प्रस्ताव पारित किया था। इन्होंने जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर संसद के अंदर और बाहर भाजपा का समर्थन किया। विभिन्न आरोपों में सीजेआई दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने का भी केजरीवाल ने भाजपा का समर्थन किया था। किसान विरोधी कानूनों को विधानसभा में पास करने वाली केजरीवाल की सरकार देश की पहली पार्टी थी। उनकी पार्टी ने राज्यसभा के उपसभापति के लिए विपक्ष के उम्मीदवार का विरोध किया था। साथ ही आम आदमी पार्टी गुजरात, गोवा, हिमाचल प्रदेश, असम, उत्तराखंड और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव लड़ी। इन राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल था। इससे भाजपा को मदद मिली।’ कानूनी कारण के बारे में वे कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पैराग्राफ 95 केंद्र सरकार को कानून में संशोधन करने की अनुमति देता है।
“निगम चुनाव में कांग्रेस को 11 फीसदी वोट मिला है। निगम चुनाव के बाद से दिल्ली कांग्रेस अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम कर रही थी। लेकिन अब अध्यादेश पर आप को समर्थन देकर कांग्रेस ने फिर से दिल्ली में आप के सामने घुटने टेक दिए हैं। ”

प्रताप सिंह बाजवा  
इस पैरा के मुताबिक अगर संसद एनसीटीडी के अंदर किसी भी विषय पर उपराज्यपाल को कार्यकारी शक्ति प्रदान करने वाला कानून बनाती है तो उपराज्यपाल की कार्यकारी शक्ति उस सीमा तक संशोधित की जाएगी। माकन प्रशासनिक कारण गिनाते हुए कहते हैं कि सहकारी संघवाद का सिद्धांत राजधानी दिल्ली के संदर्भ में फिट नहीं बैठता है, क्योंकि दिल्ली केवल एक केंद्र शासित प्रदेश नहीं है बल्कि देश की राजधानी है। राष्ट्रीय राजधानी के रूप में केंद्र सरकार विभिन्न सेवाओं पर सालाना लगभग 37,500 करोड़ रुपए खर्च करती है। इसमें एक पैसा दिल्ली सरकार का सहयोग नहीं होता है। अजय माकन के इन तर्कों का दिल्ली कांग्रेस के कई नेताओं ने समर्थन भी किया है। स्वयं दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष चौ. अनिल सिंह केजरीवाल को समर्थन देने के खिलाफ थे। उन्होंने बताया कि पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ताओं ने मुझे आकर बताया है कि हमें केजरीवाल का समर्थन नहीं करना चाहिए। हम लोगों ने इसे राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को अवगत करा दिया था। दिल्ली की तर्ज पर ही पंजाब कांग्रेस के नेताओं ने भी इसका विरोध किया था। पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता एवं कांग्रेस नेता प्रताप सिंह बाजवा ने इस मामले पर बताया कि ‘पंजाब कांग्रेस के सभी नेता एवं कार्यकर्ता केजरीवाल को समर्थन देने के खिलाफ हैं।’ आलाकमान के फैसला लेने के बाद 23 जुलाई को मीडिया से बात करते हुए बाजवा ने कहा कि मैं राष्ट्रीय अध्यक्ष से मिलूंगा और नेताओं व कार्यकर्ताओं की भावनाओं से उन्हें अवगत कराऊंगा।
कांग्रेस विपक्षी एकता बनाने के चक्कर में कहीं अपना कुनबा ही न गंवा दे। ऐसा मानने वाले कई राजनीतिक विश्लेषक हैं। उनका कहना है कि पंजाब में आप की सरकार बनने के बाद कांग्रेस के कई पूर्व मंत्री और नेताओं पर मुकदमा चलाया जा रहा है। एक पूर्व मंत्री को तो जेल भेज दिया गया है। ऐसे में पार्टी नेता और कार्यकर्ता आप का समर्थन कैसे कर सकते हैं। आलाकमान के इस फैसले पर इन राज्यों के नेता चुनाव पूर्व कहीं और चले जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
निगम चुनाव के बाद से दिल्ली कांग्रेस अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम कर रही थी। लेकिन अब अध्यादेश पर आप का समर्थन देकर कांग्रेस ने दिल्ली में आप के सामने घुटने टेक दिया है।
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