कुछ नये सपने आंखों में बुन देते थे

युगवार्ता    22-Sep-2023
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narendraनरेन्द्र पुण्डरीक

 
कुछ नये सपने आंखों में बुन देते थे

स्कूल क्या था गायों का तबेला था

रात में मुखिया की गायें रहती थी

दिन में साफ सूफ करके हम लोगों की

बोरियों की फट्टियां बिछ जाती,

लेकिन इस पर भी

दिन-भर में श्याम पट के शब्द

किताबों के पाठ कुछ नये सपनें

आंखों में बुन देते थे,

पढ़ाने वाले मास्टर अपने हुनर और

ज्ञान के मुंशी होते थे जो

शब्दों को हमारे भीतर

टांकें बिना नहीं छोड़ते थे,

हम पढे लड़के उन घरों से थे

जिनमें हमारा पढ़ना जरूरी

काम की तरह लिया जाता था

जब हम पढ़ते हुये अपने पिता की

आंखों में सपने बुन रहे होते

ठीक उसी समय हमारे पिता

उन घरों के लड़कों को

जो हमारी उमर के ही होते

मुंह अंधेरे ही उठा कर

पश्चिम की ओर मुंह करके खड़ा कर देते

जो घर आने के लिए दिन भर

सूरज के डूबने का इंतजार करते,

इस तरह उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि

हमारा पढ़ना लिखना उन्हें हमेशा

वैसा ही बनाये रखने का तिकड़म हैं,

ज्ञान तो आखिर ज्ञान होता है

वह तिकडमों के बांधें कहां बंधता है

सो वह गायों को चराते हुये पढ़ते रहे

जूते गांठते हुये पढ़ते रहे

सर में मैला ढोते हुये पढ़ते रहे

वे कपड़ा बुनते और कपड़ा धोते हुये पढ़ते रहे

लोहा कूटते और लकड़ी अहारते हुये पढ़ते रहे

वे पढ़ कर हमारे सामने हैं

हमारे शातिरपने के जवाब में

हमारे पाठ

हमारे सामने दुहरा रहे हैें।

 
 

हम ही नाव में

हमारी दो, तीन की किताब बेसिक रीडर में

एक कविता थी जिसे

खूब गाते थे हम

अम्मा जरा देख तो उपर

चले आ रहे हैं बादल

लगता था कविता नहीं थी यह

बादलों का राग था

जिसे मैं गाता था

मां सुनती थी,

यह कविता की ताकत थी

जो बिजली, बादल, गर्जन, तर्जन

सबको उतार लाती थी हमारे पास,

हालांकि यह वह समय था जब

पानी के चूने, टपकने से

हमारे बिछावन रोज गीले हो जाते थे

पर बादलों से हमारा उछाह

कम नहीं होता था,

बादलों के आसमान में उनैते ही

हम तलाशने लगते थे कागज

तब घरों में इतने कागज होते कहां थे कि

आसानी से बना लेते मन की नाव,

शब्द तो कुछ-कुछ छूटना शुरू हो गये थे

लेकिन कागजों में अभी तक

उन्हीं का कब्जा था

उन्हीं के घरों में आते थे अखबार

जिन घरों के बच्चों को

नहीं आती थी नाव बनाने की कला,

बच्चे तो आखिर बच्चे होते हैं

हमारी ही तरह लाख बरजने के बावजूद

नाव बनाने और तैराने की ललक

उन्हें ले आती बादलों के

गर्जन-तर्जन के बीच,

फिर तो हमारी नावें होती

और काल का जलधि प्रवाह होता

हम ही उतुंग शिखरों पर होते

और हम ही नाव में अगली सृष्टि की ओर

बढ़ते हुये दिखाई देते।

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