जीवनी के जरिए कस्तूरबा गांधी का पुण्य स्मरण

युगवार्ता    05-Mar-2024   
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कस्‍तूरबा गांधी की जीवनी में गांधीजी हर पंक्ति में और हर पन्ने पर मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी इसलिए है क्योंकि प्रो. बी.एम. भल्ला ने उनके समानान्तर कस्तूरबा गांधी को अग्रणी भूमिका में प्रस्तुत किया है। वे इस धारणा को मिटाने में सफल हुए हैं कि कस्तूरबा गांधी अनुचर हैं। वे यह सिद्ध कर सके हैं कि कस्तूरबा गांधी का अपना एक स्वतंत्र और विकासमान व्यक्तित्व था।
बीएम भल्‍ला की पुस्‍तक  
इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र में कस्तूरबा गांधी की पुण्य तिथि निराले ढंग से मनाई गई। यह अवसर विशेष बन गया। गांधीजी को वर्ष में दो बार याद करने की परंपरा हो गई है। लेकिन शायद ही कस्तूरबा गांधी को अलग से एक आयोजन में स्मरण किया जाता रहा हो। इसका एक कारण भी है। यह मान लिया गया है कि गांधीजी में कस्तूरबा समाहित हैं। यह धारणा गलत नहीं है। लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है। इसे बहुत बढ़िया ढंग से उस दिन उन लोगों ने समझा, जो इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र के ‘उमंग’ सभागार में उपस्थित थे। यह बात बीते 22 फरवरी की है। इस आयोजन का एक इतिहास है। अगर कला केंद्र के एक ट्रस्टी भरत गुप्त ने बार-बार प्रो. बी.एम. भल्ला की लिखी कस्तूरबा गांधी की जीवनी को सराहा न होता, तो यह आयोजन शायद ही हो पाता क्योंकि इस पुस्तक से परिचय का दायरा वैसा नहीं है जैसा कि गांधीजी पर लिखी पुस्तकों का है।
इसलिए प्रो. बी.एम. भल्ला की ‘कस्तूरबा गांधी, ए बायोग्राफी’ पर पुस्तक चर्चा रखी गई। जिसमें लोकार्पण भी शामिल था। इसे प्रो. रमेश गौड़ ने संभव बनाया। इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र का कलानिधि प्रभाग पुस्तक चर्चा के लिए अब विख्यात हो गया है। इसलिए जल्दबाजी में नहीं, बल्कि सुनियोजित तरीके से यह आयोजन होता है। इसकी एक विधिवत प्रक्रिया बन गई है। उस दिन वर्षा दास मुख्य वक्ता थी। उन्होंने पूरी पुस्तक पढ़ी थी। यह उनके लिखित भाषण से हर कोई जान सका। प्रो. बी.एम. भल्ला ने पुस्तक की रचना प्रक्रिया पर न बोलकर कस्तूरबा गांधी के गुणों और उनकी विशेषताओं पर बोला। क्या कस्तूरबा गांधी पर यह पहली पुस्तक है? ऐसा नहीं है।
इससे पहले अरुण गांधी की एक पुस्तक सन 2000 में छपी है। लेकिन प्रो. बी.एम. भल्ला की पुस्तक संभवतः पहली है, जिससे कस्तूरबा गांधी को समझना और तत्वतः जानना संभव है। यही बात इस पुस्तक को दूसरी पुस्तकों से भिन्न और श्रेष्‍ठ बनाती है। इस पुस्तक में गांधीजी हर पंक्ति में और हर पन्ने पर मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी इसलिए है क्योंकि प्रो. बी.एम. भल्ला ने उनके समानान्तर कस्तूरबा गांधी को अग्रणी भूमिका में प्रस्तुत किया है। वे इस धारणा को मिटाने में सफल हुए हैं कि कस्तूरबा गांधी अनुचर हैं। वे यह सिद्ध कर सके हैं कि कस्तूरबा गांधी का अपना एक स्वतंत्र और विकासमान व्यक्तित्व था। जिसमें सनातन परंपरा समाहित थी। स्कूली शिक्षा के अभाव में कोई अधूरा नहीं रहता। वह जीवन के जगत में पूरा जी सकता है और अपना स्वतंत्र योगदान दे सकता है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। इस कीमती बात को प्रो. भल्ला ने गांधी साहित्य से कस्तूरबा गांधी के प्रसंगों को खोजकर निकाला और लिखा। जिससे यह पुस्तक बनी। जो भी इस पुस्तक को पढ़ेगा वह पाएगा कि अध्ययन-अध्यापन के लंबे अनुभव की इसमें चमक है।
यह पुस्तक सात अध्यायों की है। पुस्तक छोटी है। इसमें कुल 264 पेज हैं। लेकिन मुहावरे की भाषा में कहें, तो यह पुस्तक गांधी-कस्तूरबा के सागर जैसी गहराई का अनुभव कराती है और उनके अनंत विस्तार का भी इसमें दर्शन होता है। यह पुस्तक अंग्रेजी में है। जिसे साधारण अंग्रेजी आती है, वह भी इसे पढ़कर कस्तूरबा की महानता को अनुभव कर सकता है। इसे पढ़ते हुए पाठक पाएगा कि अंग्रेजी भाषा पर प्रो. बी.एम. भल्ला का अधिकार ऐसा है जो पुस्तक को सुरुचिपूर्ण बनाता है। ऐसी पुस्तक गहरी अंतरदृष्टि से संभव हो पाती है। अनेक वर्षों के अध्ययन-मनन का परिणाम है यह पुस्तक। यह 2020 में छपकर आई। इसका स्थाई महत्व है।
यह पुस्तक जहां से शुरू होती है उसी बिंदु पर उसका समापन भी होता है। यहां समापन से आशय पूर्णता से है। प्रारंभ का बिंदु ही पूर्णता को अगर प्राप्त करता है, तो इसमें एक जीवन दर्शन दिखाई देता है। किसी के मन में यह प्रश्‍न आ सकता है कि पुस्तक जिस प्रसंग से प्रारंभ होती है, क्यों उसी पर पूरी होती है? क्या यह मात्र लेखन शैली का विषय है? ऐसा सतह पर दिखता है। लेकिन जो नहीं दिखता, वह चिंतन का अंश है। ऐसा क्यों है? इसलिए है कि प्रो. भल्ला ने भारतीय चिंतन को आत्मसात किया है। पश्चिम मानता है कि जीवन एक रेखा में चलता है। लेकिन भारत ठीक इसके विपरीत यह समझता रहा है और उसे अब दुनिया भी मानने लगी है कि जीवन एक वृत्त बनाता है। जीवन चक्रीय है। एक वृत्त तभी बनता है जब पहला छोर अंतिम छोर से मिले। इस दृष्टि से कस्तूरबा गांधी की जीवनी का प्रारंभ उनकी मृत्यु से है और पुस्तक का समापन भी उसी प्रसंग के वर्णन से है। इस तरह यह जीवनी कस्तूरबा गांधी का वह जीवन वृत्त है, जो जानने योग्य है। इसे लेखक ने कुछ शब्दों से प्रतीकात्मक अर्थ दिया है। जैसे-पतिव्रता और तपस्या। ये दो शब्द न जाने कब से भारत में स्त्री की परिभाषा है।
कस्तूरबा गांधी की पुण्यतिथि 22 फरवरी होती है। भारत छोड़ों आंदोलन के पहले दिन ही महात्मा गांधी गिरफ्तार कर लिए गए। उनकी कमी कस्तूरबा गांधी ने पूरी की। भारत छोड़ों आंदोलन को नेतृत्व दिया। फिर अपनी गिरफ्तारी दी।कुछ दिन दूसरी जेल में उन्हें रखा गया। लेकिन थोड़े दिनों बाद अंग्रेजी सरकार ने उन्हें भी वहीं भेजा जहां गांधीजी बंदी थे। वह स्थान पूने स्थित आगा खां का महल था जिसे कारावास में बदल दिया गया था। वहीं पर महादेव भाई देसाई का निधन पहले हुआ। वह गांधीजी के लिए बड़ी क्षति थी। दूसरा विछोह कस्तूरबा गांधी से था। यह बात 1944 की है। गांधीजी के साथ रहने वालों में ज्यादातर ने डायरी रखी है। यह शिक्षा गांधीजी की ही थी। उन डायरियों का बड़ा महत्व है। लेकिन कस्तूरबा गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उनका जीवन ही वह डायरी है, जिसे लोग समय-समय पर पढ़ने की कोशिश करते हैं और वह क्रम अभी भी बना हुआ है। उसी क्रम में यह पुस्तक भी है।
कस्तूरबा गांधी बड़े बाप की बेटी थीं। उनका लालन-पालन बहुत बढ़िया ढंग से हुआ था। परिवार धार्मिक था। ऐसा ही गांधीजी के साथ भी है। इसे संयोग भी कह सकते हैं कि वे पोरबंदर में एक ही समय दो-चार मास आगे-पीछे जन्मे। कुछ माह ही सही, लेकिन कस्तूरबा उम्र में गांधीजी से बड़ी थी। यह प्रतीकात्मक भी है और अपने आप में जीवन के काव्य को प्रकट करने वाली सूचना भी है। 13 साल की ही अवस्था में उनका विवाह हुआ। हालांकि रानी दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई की तरह कस्तूरबा ने तलवार नहीं उठाई, अहिल्याबाई की तरह सिंहासन पर बैठकर राज-काज नहीं चलाया, लेकिन उनमें शौर्य और साहस का अपार भंडार था। वह उनके जीवन में प्रकट हुआ। उसकी कहानी बहुत बेहतर ढंग से प्रो. बी.एम. भल्ला ने अपनी पुस्तक में प्रामाणिक आधारों पर दी है।
गांधीजी शुरू में कस्तूरबा के प्रति कुछ कड़े थे। लेकिन कस्तूरबा गांधी को वे जल्दी ही समझ गए। यही बात कस्तूरबा गांधी पर भी लागू होती है। परिस्थितियों ने दोनों को बदला। गांधीजी ने जितना कस्तूरबा को बदला, उससे ज्यादा कस्तूरबा ने गांधीजी को बदला। यह प्रक्रिया चलती रही। इसकी कहानी विशद है। गांधीजी के लंदन प्रवास और पढ़ाई के दौरान कस्तूरबा को समय मिला। जिससे वे भावी जीवन संग्राम की तैयारी कर सकीं। जरूरत थी, संकल्प, साहस और सामाजिक जीवन के अभ्यास की। दक्षिण अफ्रीका उसकी पाठशाला बनी। प्रो. बी.एम. भल्ला की पुस्तक का चौथा और पांचवां अध्याय उस कहानी को कहता है। उससे पहले के तीन अध्याय तैयारियों के हैं। दक्षिण अफ्रीका ने गांधी और कस्तूरबा को उस मंजिल पर पहुंचाया, जहां गांधी व्यक्ति के बजाय एक संस्थान हो गए। ऐसा संस्थान जहां स्वतंत्रता संग्राम की दुंदुभि बजती रहती थी। उनमें देश ने देवत्व देखा। उन्हें महात्मा माना। वे महात्मा थे भी। उसी दक्षिण अफ्रीका में कस्तूरबा का आरोहण हुआ। वे मोहनदास करमचंद्र गांधी की पत्नी के रूप में स्वतंत्रता संग्राम की माता बनी। इसका प्रारंभ 1906 से होता है। ब्रह्मचर्य व्रत तो मात्र एक प्रारंभिक बिंदु है।
इसकी कहानी पुस्तक में है। वह तपोमय जीवन की शुरुआत है। वह कस्तूरबा के लिए सहज था। गांधीजी के कार्य में हाथ बंटाना उन्होंने अपना सहज धर्म माना। इस तरह एक सत्याग्रही की वे जीवन संगिनी बनीं। उसके प्रेरक और मजेदार किस्से प्रो. बी.एम. भल्ला ने दिए हैं। नारायण भाई देसाई 'गांधी कथा' कहते थे। उसमें वह किस्सा वे अवश्‍य सुनाते थे कि कैसे दक्षिण अफ्रीका में विवाहों की रजिस्ट्री का कानून बना तो गांधीजी ने उसे कस्तूरबा को कैसे समझाया। उसके खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व गांधीजी ने किया और कस्तूरबा ने उनकी गिरफ्तारी के बाद महिलाओं में घूम-घूमकर सत्याग्रह का शंख फूंका। जो होना था, वही हुआ। स्मट्स की सरकार ने उन्हें भी जेल में बंद करने में ही अपनी सुरक्षा समझी। इससे एक नया अध्याय कस्तूरबा के जीवन में प्रारंभ हुआ। लेकिन वह एक मात्र नहीं था। उनका जीवन सर्वांग है।
“कस्तूरबा की मृत्यु से मेरे जीवन में जो सूनापन पैदा हुआ है वह कभी पूरा नहीं हो सकेगा।                                                                                                                                           - महात्‍मा गांधी 
वह पूरा हुआ शिवरात्रि की शाम को। तारीख थी, 22 फरवरी, 1944। लेकिन उसके कई महीने पहले कस्तूरबा को इसका आभास हो गया था। एक साल पहले गांधीजी के जन्मदिन पर उन्होंने वह साड़ी पहनी जो गांधीजी के काते सूतों से बनी थी। जिसका किनारा लाल था। उन्होंने इच्छा जताई कि उनका शव इसी साड़ी में अग्नि को सुपुर्द किया जाए। मृत्यु अंतिम परीक्षा होती है। कस्तूरबा उसकी तैयारी में थी। उन्हें कई बार दिल के दौरे पड़े। गांधीजी ने अधिक समय उन पर देना शुरू किया। उनके तीनों पुत्र हरिलाल, रामदास और देवदास उस समय पास में थे। यह कस्तूरबा के लिए संतोष का क्षण था। कस्तूरबा के अंतिम क्षण में देवदास ने उन्हें गंगा जल दिया। वे उसके बाद अचेत हो गयी। थोड़ी देर बाद ही चमत्कार घटित हुआ। अपनी आंतरिक ऊर्जा समेटकर वे अपने से ही उठ बैठी। गांधीजी आए। उनकी बाहों में उन्होंने प्राण छोड़े। घड़ी ने सात बजा दिए और कस्तूरबा ने आंखें मूंद ली।
अगले दिन आगा खां महल के चारों तरफ भीड़ जमा थी। कस्तूरबा गांधी के निधन की खबर फैल चुकी थी। अंतिम संस्कार वहीं हुआ जहां महादेव भाई देसाई की समाधि थी। कस्तूरबा को स्नान कराकर वही साड़ी पहनाई गई जिसकी उन्होंने हिदायत दे रखी थी। तुलसी की कंठी उनके गले में पहनाई गई। माथे पर चंदन और कुमकुम का लेप किया गया। प्रश्‍न था कि सूखे चंदन की लकड़ी उस जेल में कैसे प्राप्त हो। इसका उत्तर जेलर के पास था। वह चंदन की लकड़ी लेकर गांधीजी के सामने उपस्थित हुआ। रहस्य खुला कि वह लकड़ी उस समय मंगाई गई थी जब सरकार ने मान लिया था कि गांधीजी अपने लंबे उपवास में बचेंगे नहीं। वही चंदन की लकड़ी कस्तूरबा के दाह-संस्कार में काम आई। गांधीजी ने कहा, ‘कस्तूरबा की मृत्यु से मेरे जीवन में जो सूनापन पैदा हुआ है वह कभी पूरा नहीं हो सकेगा।’
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।