हार के डर से सहमे अखिलेश ने बिहार चुनाव से बनाई दूरी

04 Nov 2025 13:29:00
सांकेतिक फोटो—समाजवादी पार्टी—अखिलेश यादव


लखनऊ/पटना, 04 नवम्बर(हि.स.)। उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद को चैंपियन समझने वाली समाजवादी पार्टी का पड़ोसी राज्य बिहार में तिल बराबर भी असर नहीं है। इसलिए समजावादी पार्टी ने इस बार बिहार विधानसभा चुनाव से दूरी बनाई है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस जैसे दल तो अपने वहां के गठबंधन वाले दलाें के साथ मैदान में हैं ही, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) जैसे पार्टियां भी किस्मत आजमा रही हैं। इन सबके बीच वहां पर सपा का मैदान में नहीं हाेना काफी चाैंका रहा है।

बिहार विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी, महागठबंधन और उसमें भी खासतौर पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) उम्मीदवारों के समर्थन तक ही सिमटा हुआ है और ​वर्ष 1992 में सपा के गठन के बाद बिहार का यह दूसरा चुनाव है,जब वह सीधे चुनावी लड़ाई में नहीं उतरी है।

राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार, सपा प्रमुख अखिलेश जानते हैं कि बिहार में उनका जनाधार नाम बराबर का है। ऐसे में बिहार में फीके प्रदर्शन की छाया उत्तर प्रदेश की राजनीति पर न पड़े, इसलिए उन्होंने बिहार के विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं। सपा अपना पूरा ध्यान वर्ष 2027 में होने वाले प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर केंद्रित रखना चाहती है। दूसरी तरफ समर्थन के सहारे सपा प्रमुख ने इंडी गठबंधन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का संदेश भी दे दिया है। बताया तो यह भी जी रही है कि उत्तर प्रदेश में अगले साल यानी 2026 में होने वाले पंचायत चुनाव में भी सपा अपने प्रत्याशी उतारने की बजाय बाहर से समर्थन का फार्मूला अपनाएगी।

बिहार विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन की बात करें, तो अपने गठन के तीन साल बाद साल 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव मैदान में सपा उतरी थी। उस चुनाव में 176 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे और दो सीटों पर जीत मिली थी। तब सपा से तस्लीमुद्दीन और मुजफ्फर हुसैन विधायक बने थे। इसके बाद वर्ष 2000 के बिहार विधान चुनाव में सपा ने 122 सीटाें पर भाग्य आजमाया, परंतु एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी। वर्ष 2005 में 142 सीटों पर लड़कर सपा ने चार पर जीत हासिल की, तब दिलीप वर्मा, ददन सिंह, मो. आफाक आलम और देवनाथ यादव विधायक बने थे। वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 146 और 2015 में 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, परंतु उसका खाता नहीं खुला। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के समय यूपी में अखिलेश मुख्यमंत्री थी। बावजूद इसके सपा की साइकिल बिहार में पंचर साबित हुई।

बात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की करें, तो वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को करारी हार मिली थी और हाथ से सत्ता चली गई थी। तब से सपा बिहार चुनाव से दूर है। वर्ष 2020 के चुनावों की तरह ही इस बार भी बिहार में न लड़ने का फैसला लेने की एक बड़ी वजह है कि वहां सपा का आधार बेहद सीमित रहा है, 2015 के बाद से चुनाव लड़ने के कारण इसमें और कमजोरी आई है। पहले के चुनावों में भी सपा को 2005 में अधिकतम 2.69 प्रतिशत वोट ही मिले थे। ऐसे में चुनाव लड़ने की सूरत में कहीं नतीजे खराब आता, तो उत्तर प्रदेश में विराेधी उसे सपा के खिलाफ मुद्दा बनाते और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरने की भी आशंका बनी रहती।

वरिष्ठ पत्रकार सुशील शुक्ल के अुनसार, समाजवादी पार्टी ऐसा कोई जोखिम नहीं लेना चाहती, जिससे कि उत्तर प्रदेश में उसकी राजनीति पर नकारात्मक असर पड़े। खासकर तब, जब वह 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले संगठन मजबूत करने, जातीय समीकरण साधने और भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक नैरेटिव बनाने की रणनीति पर काम कर रही है।

सुशील शुक्ल आगे कहते हैं कि सपा को उत्तर प्रदेश से बाहर अपनी ताकत का बाखूबी अंदाजा है, ऐसे में अन्य राज्यों में फीके प्रदर्शन का दाग और असर वो यूपी की राजनीति पर नहीं पड़ने देना चाहती। यही वजह है कि सपा प्रमुख ने बिहार में इंडी गठबंधन के साथी के तौर पर राजद काे समर्थन कर अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत रखने की रणनीति चुनी है। लालू यादव से उनके पारिवारिक रिश्ते भी हैं। अखिलेश यादव इन दिनों महागठबंधन के समर्थन में रैलियों को संबोधित कर रहे हैं। उनके निशाने पर भाजपा है।

हिन्दुस्थान समाचार/डॉ. आशीष वशिष्ठ

हिन्दुस्थान समाचार / राजेश

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