बिहार विधानसभा चुनाव में सपा से उलट है बसपा की राजनीति

08 Nov 2025 14:09:00
सांकेतिक फोटो-समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी


लखनऊ/पटना, 08 नवम्बर(हि.स.)। बिहार की राजनीति में उत्तर प्रदेश (यूपी) के दो प्रमुख राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अलग रणनीति और राजनीति कर रहे हैं। सपा जहां ये नहीं चाहती कि बिहार में उसके प्रदर्शन की छाया यूपी की राजनीति पर पड़े, ठीक उसके उलट बसपा बिहार में अच्छा प्रदर्शन कर के यूपी में अपनी धमक बढ़ाना चाहती है। वैसे दोनों दलों की राजनीतिक धारा को अलग है, लेकिन 2019 के आम चुनाव में दोनों गठबंधन में एक साथ भी चुनाव लड़ चुके हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपने प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारे। वह महागठबंधन के प्रत्याशियों खासकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का समर्थन कर रही है। सपा प्रमुख और पार्टी के कई दूसरे नेता बिहार चुनाव में प्रचार कर रहे हैं। सपा का फोकस साल 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव पर है।

चुनावी आंकड़ों के आलोक में बात करें, तो बिहार में सपा की साइकिल कभी रफ्तार पकड़ नहीं पाई। ऐसे में बिहार में फिसड्डी प्रदर्शन का असर यूपी में पड़ना लाजिमी है। हार के डर से सपा ने बिहार में चुनाव नहीं लड़ा। जानकारों की मानें तो सपा 2026 के पंचायत चुनाव में भी पार्टी प्रत्याशी उतारने की बजाय बाहर से समर्थन की रणनीति पर काम कर रही है। हार और बुरे प्रदर्शन का डर सपा नेतृत्व में घर कर गया है।

समाजवादी पार्टी की राजनीति के ठीक उलट बहुजन समाज पार्टी यूपी में अपनी खोयी साख कायम करने के लिए बिहार के चुनावी मैदान में उतरी है। अबकी बसपा ने बिहार में अकेले ही सभी 243 सीटों पर लड़ने की निर्णय किया था। पार्टी ने ज्यादातर सीटों पर प्रत्याशी उतारे भी थे, लेकिन विभिन्न कारणों से बड़ी संख्या में नामांकन रद होने से लगभग 190 उम्मीद्वार ही मैदान में हैं। चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के लिए मायावती ने अपने भतीजे और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद के साथ राष्ट्रीय समन्वयक एवं राज्यसभा सदस्य रामजी गौतम व अनिल सिंह आदि को लगा रखा है।

बिहार में बसपा का खास फोकस यूपी सीमा से सटे जिलों में है। पार्टी ने अपने पूर्वांचल के तमाम नेताओं को बिहार के चुनावी मैदान में लगा दिया है। बसपा की कोशिश है कि यूपी से सटी हुई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले बनाए, ताकि दलित वोट बैंक के एकजुट होने पर उसके उम्मीदवारों की राह आसान हो सके।

बिहार की तीन दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटें उत्तर प्रदेश के बॉर्डर से सटी हुई हैं। यूपी के महाराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, बलिया, गाजीपुर, चंदौली और सोनभद्र जिले की सीमा बिहार के आठ जिलों से लगती है। बिहार के सारण, सीवान, गोपालगंज, भोजपुर, पश्चिमी चंपारण, रोहतास, बक्सर, कैमूर और रोहतास जिलों की सीटें यूपी से सटी हुई हैं। यूपी के पूर्वांचल और बिहार के पश्चिमी इलाकों की बोली भोजपुरी, रहन-सहन और ताना-बाना भी लगभग एक जैसा है। इस इलाके का जातीय और सियासी समीकरण भी काफी मिलते-जुलते हैं। इसीलिए बसपा का सियासी आधार भी इस इलाके में माना जाता है। बसपा को बिहार में जिन इलाकों में जीत मिली है,वह यूपी से सटी हुई सीटें रही हैं, क्योंकि यहां पर दलित मतदाता अच्छी खासी संख्या में है।

बिहार के गोपालगंज, कैमूर, चंपारण, सिवान और बक्सर जिले की सीटों पर बसपा पूरे दमखम के साथ लड़ रही है। यही वजह है कि बिहार के इन जिलों की 15 से अधिक सीटों पर बसपा पूरी ताकत लगा रही है। दलितों को एकजुट करके कुछ सीटों पर कब्जा करने की रणनीति पर काम कर रही है। बसपा की नजर कैमूर की चारों सीटों भभुआ, मोहनियां, रामगढ़ और चैनपुर पर है। इसीलिए मायावती की रैली भी कैमूर जिले में रखी गई है।

दरअसल, बसपा की कोशिश दलित और पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को लामबंद करने की है। मायावती की मौजूदगी से कैमूर में सियासी समीकरण बदलने की उम्मीद जताई जा रही है। 2005 में भभुआ और 2020 में चैनपुर सीट पर जीत दर्ज कर चुकी बसपा की जड़ें इस इलाके में गहरी हैं। चैनपुर सीट पर बसपा दो बार जीत चुकी है। 2020 में बसपा ने यह सीट जीती थी, लेकिन जमा खान बाद में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) में शामिल हो गए थे।

चुनाव विशलेषकों के अनुसार बिहार चुनाव में अगर बसपा अच्छा प्रदर्शन करती है, तो यूपी की राजनीति में बसपा का प्रभाव बढ़ना तय है। सपा ने बिहार में अपनी कमजोर स्थिति भांपते हुए प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारे, इसके चलते उसके डर और कमजोर स्थिति का नकारात्मक संदेश जनता में गया है। अब यह देखना अहम होगा कि सपा का डर उसके काम आता है या बसपा का हौसला।

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हिन्दुस्थान समाचार/डॉ. आशीष वशिष्ठ

हिन्दुस्थान समाचार / राजेश

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