भारतीय चुनाव में अमेरिकी पैसा!

युगवार्ता    07-Mar-2025   
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दुनिया के विभिन्न देशों में अपनी पसंद की सरकार बनवाने और नापसंद सरकार को गिराने अथवा अस्थिर करने के लिए कुछ विदेशी ताकतें एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत बड़े पैमाने पर फंडिंग कर रही हैं। यूएस एड इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस सनसनीखेज खुलासे पर रोशनी डाल रही है यह रिपोर्ट...
यूएस एड का भारत पर असर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती जो बिडेन प्रशासन द्वारा भारतीय चुनाव को प्रभावित करने का संदेह व्यक्त करके ऐसा विषय सामने ला दिया है, जो महसूस तो हो रहा था, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर हमारे सामने कुछ नहीं था। बीती 16 फरवरी को ट्रंप प्रशासन के अंदर नवनिर्मित डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी डोजे यानी सरकारी दक्षता विभाग के प्रमुख एलन मस्क भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर यूएस एड या यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के माध्यम से 21 मिलियन डॉलर यानी 182 करोड़ रुपए के अनुदान की सूचना सामने लाए, तभी से यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि आखिर क्यों? दक्षता विभाग ने यूएस एड द्वारा दी जाने वाली अनुदान राशि, संबंधित देश और किन मदों में उसे खर्च किया जाना है, इसकी सूची जारी की है। साफ झलकता है कि अमेरिकी प्रशासन केवल भारत नहीं, बल्कि कई देशों की राजनीति और चुनाव को अपने अनुसार प्रभावित करने या उनके परिणामों को मोड़ने की कोशिश कर रहा है।
आरंभ में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे रोकने की घोषणा की और कहा कि भारत के पास स्वयं काफी पैसा है तो हम क्यों दे? फिर उन्होंने अमेरिकी सामग्रियों पर भारत में लगने वाले आयात शुल्क को भी आवश्यकता से अधिक बताया। उस समय ऐसा लगा, मानो वह भारत द्वारा शुल्क लिए जाने के विरुद्ध कदम उठा रहे हैं। हालांकि उसमें भी उन्होंने कहा, मैं भारत और भारतीय प्रधानमंत्री का बहुत सम्मान करता हूं, लेकिन शुल्क बहुत ज्यादा लगते हैं। फिर उन्होंने मियामी के एफआईआई सम्मेलन में कहा, हमें भारत में मतदान बढ़ाने पर 21 मिलियन डॉलर खर्च करने की आवश्यकता क्यों है? मुझे लगता है कि वे किसी और को जिताने की कोशिश कर रहे थे। हमें भारत सरकार को बताना होगा। यह पूरी तरह से नया खुलासा है, क्योंकि जब हम सुनते हैं कि रूस ने हमारे देश में 2 डॉलर का खर्च किया है तो यह हमारे लिए बड़ा मुद्दा बन जाता है। उसके बाद वाशिंगटन डीसी में रिपब्लिकन पार्टी के गवर्नरों के सम्मेलन में उन्होंने फिर इसे दोहराया। यहां उनकी पंक्तियां काफी ध्यान देने योग्य हैं। उन्होंने कहा, मैं कहूंगा कि इनमें से कई मामलों में जब आपको पता ही नहीं होता कि हम किस बारे में बात कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि यह दलाली है, क्योंकि किसी को नहीं पता कि वहां क्या चल रहा है।
हमारे देश में मीडिया, थिंक टैंक, एनजीओ, एक्टिविस्टों एवं राजनीतिक दलों के बीच ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जिनका इरादा हमेशा केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और राज्य की भाजपा सरकारों को किसी तरह से झूठा साबित करने की होती है। जैसे ही इस तरह की बातें सामने आती हैं, उन्हें झूठा साबित करने का समानांतर अभियान चल पड़ता है। इस बार भी यही हो रहा है। ट्रंप को ही फूहड़ और हल्का साबित करने का अभियान चलाया जा रहा है। ट्रंप को अमेरिकी लोगों ने अपना राष्ट्रपति निर्वाचित किया है और वहां के मतदाता नासमझ या गंवार नहीं हैं। इस समय वह अमेरिका के राष्ट्रपति हैं तो उनकी बातों को अगंभीरता से नहीं लिया जा सकता। यह आरोप भारत सरकार की ओर से नहीं आया है कि इसके विरुद्ध आपकी बातों का असर हो। मान लेते हैं कि उन्होंने थोड़ी सनसनी पैदा करने और पूर्व डेमोक्रेटिक प्रशासन को आरोपित करने की दृष्टि से विश्लेषण में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। किंतु यूएस एड की सूची और खर्च के निर्धारित मद तो तथ्य हैं। भाजपा की प्रतिक्रियाओं को कुछ समय के लिए अलग कर दीजिए। अमेरिकी राष्ट्रपति के आरोप, दक्षता विभाग द्वारा जारी सूची, पिछले कुछ समय से भारत सहित विश्व के अलग-अलग देशों की राजनीति और चुनावों को प्रभावित करने संबंधी आए समाचारों तथा अध्ययनों के आधार पर इसकी विवेचना आसानी से की जा सकती है।
 
यूएस एड के पीछे की मंशा क्या थी?
बांग्लादेश में राजनीतिक सुधारों के लिए अमेरिकी सहायता राशि की जरूरत क्यों थी? पूरे विश्व में चुनाव और राजनीतिक प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता अमेरिकी प्रशासन को क्यों महसूस हुई? मोजांबिक में पुरुष खतना कराएं, इसमें अमेरिका की अभिरुचि क्यों है? कंबोडिया में स्वतंत्र आवाज मजबूत हो तो प्राग में नागरिक समाज अंदर से सशक्त हो, कहीं सार्वजनिक खरीद में सुधार हो तो कहीं सिखाने के परिणाम में सुधार आए, इन सबका केवल समाजसेवा या उस देश का हित उद्देश्य नहीं हो सकता। अमेरिका इतना बड़ा समाजसेवी देश तो नहीं माना जा सकता। इसलिए इसके पीछे निश्चित रूप से कुछ राजनीतिक उद्देश्य थे। अमेरिका के डिपार्टमेंट आॅफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी यानी सरकारी दक्षता विभाग के प्रमुख बनाए गए एलन मस्क को धन्यवाद कहिए कि उन्होंने इसकी सूची विश्व के सामने रख दी है। अमेरिकी प्रशासन का इसके पीछे आंतरिक राजनीति की दृष्टि से जो भी लक्ष्य हो, किंतु भारत के लिए तो अनुदान राशि और उसके उद्देश्य का महत्व है? यूएस एड बंद कर दिया गया, तो इसका यह अर्थ नहीं कि यह क्यों आया, कहां-कहां खर्च हुआ, किन लोगों ने खर्च किया आदि की छानबीन नहीं हो।
आखिर हमारे देश की संप्रभुता ही नहीं, राजनीतिक स्थिरता तथा चुनावों के स्वाभाविक परिणाम लाने की दृष्टि से इसकी सच्चाई तक पहुंचना अपरिहार्य है। हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने इससे संबंधित प्रश्नों का उत्तर देते हुए स्पष्ट किया है कि ट्रंप प्रशासन ने अमेरिकी एजेंसियों की गतिविधियों को लेकर जो तथ्य रखे हैं, उससे जुड़ी सूचनाओं को हमने देखा है। यह काफी चिंता पैदा करने वाला है। यह बताता है कि भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप हो रहा है। संबंधित विभाग व एजेंसियां इस मामले की जांच कर रही हैं। एजेंसियां इसे देख रही हैं और संभवत: बाद में हम विस्तार से कुछ बताने की स्थिति में होंगे। यानी इस सूचना के आधार पर जांच शुरू हो गई है। डोनाल्ड ट्रंप ने भारत सरकार को जानकारी देने का बयान दिया था। पता नहीं, उन्होंने दिया है या नहीं और दिया है तो कितना, किस रूप में। किंतु नहीं भी दिया है तो औपचारिक रूप से हम वह जानकारियां मांग सकते हैं। नहीं मिले, तब भी भारत में आए विदेशी धन की जांच संभव है। वैसे सरकार के पास भारत में उसे प्राप्त करने वालों के नाम हैं।
“2024 के चुनाव में हमने देखा कि देश में संविधान खत्म हो जाएगा, आरक्षण खत्म हो जाएगा आदि जैसे झूठ ने भूमिका अदा की। इसमें सोशल मीडिया, मुख्य मीडिया, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की पूरी भूमिका थी। दलितों और जनजातियों के बीच लोगों का समूह जाकर प्रचार करता था। इतने व्यापक पैमाने पर झूठ फैला देना बगैर किसी योजना और संसाधन के संभव नहीं है। ”

कहां, कितना और किसलिए दिया गया यूएस एड
आइए, सबसे पहले अमेरिकी एड जाने वाले कुछ देशों और उनके उद्देश्यों पर एक सरसरी दृष्टि दौड़ाएं। डोजे द्वारा जारी सूची में 15 तरह के कार्यक्रमों के लिए धन देने की बात है। इनमें एक दुनिया भर में चुनाव प्रक्रिया के लिए ‘चुनाव और राजनीतिक प्रक्रिया सुदृढ़ीकरण’ का 48.6 करोड़ डॉलर यानी 4200 करोड़ रुपए का अनुदान शामिल था। इसमें भारत की हिस्सेदारी 182 करोड़ रुपए की है। बांग्लादेश को मिलने वाले 2.9 करोड़ डॉलर या 251 करोड़ रुपए वहां राजनीतिक माहौल को मजबूत करने के लिए दिए जा रहे थे। इसमें मोल्दोवा को ‘समावेशी और भागीदारीपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया’ के लिए 2.2 करोड़ डॉलर, मोजाम्बिक को ‘स्वैच्छिक चिकित्सा पुरुष खतना’ के लिए 1 करोड़ डॉलर, कंबोडिया में स्वतंत्र आवाज को मजबूत करने के लिए 23 लाख डॉलर, प्राग सिविल सोसाइटी सेंटर को 3 करोड़ 20 लाख डॉलर, लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण केंद्र के लिए 4 करोड़ डॉलर, सर्बिया में ‘सार्वजनिक खरीद में सुधार’ के लिए 1.4 करोड़ डॉलर और ‘एशिया में सीखने के परिणामों में सुधार’ के लिए 4.7 करोड़ डॉलर आदि शामिल हैं।
 
चुनाव आयोग का एनजीओ के साथ सहमति का मतलब

एलन मस्‍क  
वर्ष 2012 में भारत के चुनाव आयोग ने इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर इलेक्टोरल सिस्टम्स के साथ एक एमओयू यानी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इन आरोपों और समाचारों को निराधार बताया है कि आईएफएससी से धन आयोग को स्थानांतरित हुआ था। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने ऐसा ही समझौता कई अन्य एजेंसियों और इलेक्शन मैनेजमेंट बॉडीज के साथ किया था। किसी चुनावी संस्था के साथ समझौता करने और एक एनजीओ के साथ समझौता करने में मौलिक अंतर है, यह बात कुरैशी को समझनी चाहिए। कहीं नहीं कहा गया है कि इसने सीधे चुनाव आयोग को पैसा दिया। इस एजेंसी को यूएस से धन मिलता था और यह जार्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन के साथ संबद्ध है। ऐसी संस्थाएं किसी माध्यम से अपनी भूमिका को वैधानिकता का आवरण देने की दृष्टि से समझौते करती हैं और फिर अपने अनुसार लोगों को खड़ा करके कार्य करती हैं। कम से कम अमेरिकी संस्था को चुनाव के लिए भारत से सीखने की आवश्यकता नहीं थी। क्यों हुआ यह समझौता और आईएफएससी की यहां क्या भूमिका रही? कांग्रेस पार्टी का एक तर्क है कि 2014 में यूपीए सरकार सत्ता से बाहर हो गई तो जो फंड आया, उसका लाभ किसे मिला? ध्यान रखिए कि 2012 में ही गुजरात विधानसभा चुनाव था। यूपीए सरकार और अनेक संस्थाएं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध किस तरह अभियान चला रही थीं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। उस वर्ष उसके पूर्व उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब एवं मणिपुर आदि के विधानसभा चुनाव भी थे। अगले वर्ष 2013 में पहले कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्य और बाद में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव थे।
अमेरिका इतना बड़ा समाजसेवी देश तो नहीं माना जा सकता। इसलिए इसके पीछे निश्चित रूप से कुछ राजनीतिक उद्देश्य थे। अमेरिका के डिपार्टमेंट आॅफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी यानी सरकारी दक्षता विभाग के प्रमुख बनाए गए एलन मस्क को धन्यवाद कहिए कि उन्होंने इसकी सूची विश्व के सामने रख दी है।
“हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने इससे संबंधित प्रश्नों का उत्तर देते हुए स्पष्ट किया है कि ट्रंप प्रशासन ने अमेरिकी एजेंसियों की गतिविधियों को लेकर जो तथ्य रखे हैं, उससे जुड़ी सूचनाओं को हमने देखा है। यह काफी चिंता पैदा करने वाला है। यह बताता है कि भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप हो रहा है।”
भारतीय चुनावों में विदेशी भूमिका

यूएस एड का नेटवर्कभारत के चुनावों और राजनीति में विदेशी भूमिका की बात पहली बार नहीं आई है। यद्यपि नरेंद्र मोदी सरकार के गठित होने के बाद से इसका चरित्र और व्यवहार बदला है, किंतु हमारे देश में यह बीमारी लंबे समय से है। जब देश के नेता, नौकरशाही, बुद्धिजीवी, पत्रकार, एक्टिविस्ट आदि छोटे-छोटे लाभ के लिए खिलौना बनने को तैयार हो जाएं तो वहां कुछ भी हो सकता है। शीत युद्ध काल में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा थी। दोनों पूरी दुनिया में अपने प्रभाव के लिए हस्तक्षेप करते थे। अनेक सरकारें बदलीं, निर्वाचित नेताओं की हत्याएं हुईं, उथल-पुथल तक कराए गए। भारत में 1967, 1977 और 1980 के चुनावों में विदेशी भूमिका की सबसे ज्यादा चर्चा हुई। 1967 में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर केंद्रीय खुफिया एजेंसी ने विदेश से अवैध धन के लिए जांच भी कराई और उसमें तथ्य आए थे। किंतु उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। यह अलग बात है कि एक अमेरिकी अखबार में उस रिपोर्ट के कुछ अंश छप गए। वैसे सोवियत संघ के विघटन के बाद मित्रोखिन पेपर नाम से ऐसी जानकारियां हैं, जिन्हें पढ़ने वाले भौचक्क रह गए थे। वासिली मित्रोखिन, जो सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी से संबद्ध थे और क्रिस्टोफर एर्न्ड्यूज ने अपनी पुस्तकों में खुलासा किया कि केजीबी ने भारत के अनेक समाचारपत्रों, एक्टिविस्टों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों एवं नेताओं पर उस समय अरबों खर्च किए। हालांकि, मित्रोखिन के खुलासे का यहां के कम्युनिस्टों ने विरोध किया। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. ज्योति बसु ने कह दिया कि कम्युनिस्टों के विरोध के लिए अमेरिका ने इंदिरा गांधी को सीधे धन दिया और उनकी पार्टी को भी। मित्रोखिन पेपर में कम्युनिस्ट नेताओं के साथ समाजवादियों तथा अनेक पत्रकारों आदि को धन देने की जबरदस्त बातें हैं। भारत में अमेरिका के राजदूत रह चुके डेनियल मोयनिहान की पुस्तक है, ‘ए डैंजरस प्लेस’ इसमें तथ्यों के साथ लिखा गया है कि भारत में कम्युनिस्टों के विस्तार को रोकने के लिए अमेरिका ने वाकई भारतीय नेताओं को धन दिया।
वैसे आज विदेशी हस्तक्षेप की बातें भारत के अलावा विश्व के अलग-अलग देशों एवं नेताओं के साथ कुछ नामी संस्थाओं द्वारा भी समय-समय पर कही जा रही हैं। ये मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए अनेक शब्द आवरण में काम करते हैं। इसमें मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर जागरूकता फैलाना भी शामिल है। माइक्रोसाफ्ट ने डीपफेक और एआइ के माध्यम से भारतीय चुनावों को प्रभावित करने की कोशिशों पर चेतावनी दी थी। आप देखेंगे कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से अनेक ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे संदेह बढ़ा है। 2019 में दोबारा उनके सत्ता में लौटने के बाद अलग-अलग तरह के स्वरूपों में आंदोलन भारत में शुरू हुए। इनमें नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध शाहीनबाग धरना और उसके समर्थन में देश-दुनिया में सोशल मीडिया से लेकर अन्य अभियान तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का सरकार के विरुद्ध सीधे बयान देना शामिल है। कृषि कानून के विरुद्ध हुए आंदोलन में भी हमने देखा कि देश के बाहर से टूलकिट बनाकर अभियान चलाए जा रहे थे। इस तरह के आंदोलन भारत ने कभी देखे नहीं, जिनमें प्रत्यक्ष हिंसा नहीं हो, लेकिन उग्रता और हठधर्मिता ऐसी कि मुख्य सड़क पर धरना दे दिया। वहां आवश्यकतानुसार निर्माण भी कर लो और बैठे रहो। किसी सूरत में हटो नहीं। यूएस एड द्वारा 2021 में भारतीय मिशन के प्रमुख के रूप में वीणा रेड्डी को भेजा गया था। लोकसभा चुनाव 2024 के बाद उनका भारत का कार्यकाल समाप्त हो गया और वह वापस लौट गई हैं। उस समय भी उनकी भूमिका को लेकर अनेक प्रश्न उठाए गए थे। उनसे भी पूछताछ की जानी चाहिए।
वास्तव में विश्व के अनेक देशों की चुनावी प्रक्रियाओं को प्रभावित करने में विदेशी शक्तियों और संस्थाओं की भूमिका सामने आती रही हैं। 2018 में अमेरिकी सीनेट ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि 2016 में डोनाल्ड ट्रंप को जितवाने के लिए रूसी खुफिया एजेंटों ने फेसबुक विज्ञापनों के साथ कई तरीके से चुनावों को प्रभावित किया था। इसमें कितना सच है, कहना कठिन है, किंतु रूसी खुफिया एजेंट विरोधी देशों में चुनावों को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। कनाडा और आॅस्ट्रेलिया के चुनावों में चीनी फंडिंग से चलने वाले अभियानों की भूमिका सामने है। आॅस्ट्रेलिया में तो इस कारण राजनीतिक संप्रभुता पर विदेशी हस्तक्षेप के प्रभाव पर व्यापक चर्चा हो रही है, गंभीर चिंता प्रकट की गई और इसे ध्यान में रखते हुए महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव किए गए हैं। उसने जासूसी और विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ कानूनों को मजबूत किया है। बताया गया है कि 2019 के चुनावों में चीन ने 1.84 लाख अमेरिकी डॉलर एक अज्ञात उम्मीदवार के कार्यकर्ता को दिए थे। सेबेस्टियन व्हाइटमैन की किताब ‘द डिजिटल डिवाइड इन डेमोक्रेसी’ में कहा गया है कि माइक्रोसॉफ्ट ने भी अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि चीनी सरकार के समर्थन से चीन की साइबर आर्मी आगामी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों और दक्षिण कोरिया एवं भारत के चुनावों को प्रभावित कर सकती है। उत्तर कोरिया की मदद से भी चीन दूसरे देशों में पसंद की सरकार बनवा रहा है। ताइवान में चीन ने यह प्रयोग करने की कोशिश की थी, मगर सफल नहीं हुआ। ताइवान ने चीन विरोधी राष्ट्रपति निर्वाचित किया। इसके अलावा हस्तक्षेप की कोशिश में दूसरों को भी पैसे दिए गए।
हांगकांग यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट आॅफ पॉलिटिक्स एंड पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में असिस्टेंट प्रोफेसर डोव एच लेविन ने 2020 में अपनी किताब ‘मेडलिंग इन द बैलेट बॉक्स: द कॉजेज एंड इफेक्ट्स ऑफ पार्टिजन इलेक्टोरल इंटरवेंशन’ में लिखा है कि 1946 से 2000 के दौरान 938 चुनावों का परीक्षण किया गया। इनमें से 81 चुनावों में अमेरिका, जबकि 36 चुनावों में रूस ने हस्तक्षेप किया। इस तरह 938 में से 117 यानी हर 9 चुनाव में से 1 चुनाव में इन दोनों देशों की भूमिका रही है। वैराइटीज आॅफ डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट, स्वीडन द्वारा 2019 में प्रकाशित जर्मन राजनीति विज्ञानी अन्ना लुहरमैन के अध्ययन के अनुसार, हर देश ने कहा है कि मुख्य राजनीतिक मुद्दों को लेकर झूठ फैलाए गए। चीन और रूस सबसे ज्यादा झूठ फैलाने वाले देश थे। चीन ने ताइवान और रूस ने लातविया के चुनावों में यही किया। बहरीन, कतर, हंगरी, त्रिनिदाद एंड टोबैगो, स्विट्जरलैंड और उरुग्वे जैसे देशों में झूठी अफवाहों के आधार पर चुनावों को प्रभावित किया गया। यह तो संभव नहीं है कि केवल चीन और रूस ऐसा करें और अमेरिका इससे वंचित रहे। ‘मेडलिंग इन द बैलेट बॉक्स: द कॉजेज एंड इफेक्ट्स आॅफ पार्टिजन इलेक्टोरल इंटरवेंशन’ के अनुसार, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने टिकटॉक को प्रतिबंधित करने या उसे बेचने का दबाव बनाने के एक विधेयक पर हस्ताक्षर किए थे। अमेरिकी संसद का मानना था कि चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव और मतदाताओं को प्रभावित किया था।
भारत पर अभी इस तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई विस्तृत अध्ययन नहीं आया, किंतु 2019 के चुनाव में अगर ज्यादातर देशों ने स्वीकार किया कि झूठ और अफवाह फैलाकर चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की गई तो भारत उनसे अछूता नहीं हो सकता। 2024 के चुनाव में हमने देखा कि देश में संविधान खत्म हो जाएगा, आरक्षण खत्म हो जाएगा आदि जैसे झूठ ने भूमिका अदा की। इसमें सोशल मीडिया, मुख्य मीडिया, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की पूरी भूमिका थी। दलितों और जनजातियों के बीच लोगों का समूह जाकर प्रचार करता था। निश्चित तौर पर इतने व्यापक रूप से झूठ का प्रचार करने के लिए धन कहीं न कहीं से तो आया है। इतने व्यापक पैमाने पर झूठ फैला देना बगैर योजना और संसाधन के संभव नहीं है। इसलिए इनकी जांच तो होनी चाहिए। जिन लोगों के नाम इस एड को पाने वालों में शामिल हैं, उनसे भी पूछताछ की जानी चाहिए कि उन्होंने इसे किस मद में खर्च किया? हालांकि, ऐसे विषयों में जांच के कुछ ऐसे तथ्य आते हैं, जिन्हें सार्वजनिक नहीं भी किया जा सकता। बावजूद इसके, उनके आधार पर कार्रवाई एवं भविष्य में विदेशी शक्तियां हमारी राजनीति और चुनाव में हस्तक्षेप न कर सकें, इसके पूर्व उपाय के रास्ते मिलेंगे। भारत में उन संगठनों और व्यक्तियों का सच सार्वजनिक होना चाहिए, जिन्होंने राजनीतिक विरोध के नाम पर इस तरह न केवल अपने ईमान से समझौता किया, बल्कि देश को भी धोखा दिया।
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अवधेश कुमार

अवधेश कुमार, वरिष्‍ठ पत्रकार 
आप देश के जाने-माने पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं। भारत में सबसे ज्यादा हिंदी की करीब ढाई सौ पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों के अलावा उर्दू सहित कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में भी नियमित टिप्पणियां प्रकाशित। टीवी डिबेटों में इनकी भागीदारी अग्रिम पंक्ति की रहती है। इसके अलावा अनेक तरह के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक मामलों के बौद्धिक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक अभियानों में भी भागीदारी।