नई दिल्ली, 26 अगस्त (हि.स.)। जलवायु परिवर्तन के असर से पूरे भारत में मानसून का पैटर्न प्रभावित हो रहा है। पिछले दस सालों में कम समय में भारी बारिश की घटनाएं बढ़ रही हैं। पिछले 10 वर्षों में राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र के शुष्क क्षेत्रों में बारिश उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। वहीं गंगा के मैदान, पूर्वोत्तर भारत और ऊपरी हिमालय क्षेत्र में स्थित 11 प्रतिशत तहसीलों में बारिश में कमी देखी गई
है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के नेशनल मानसून मिशन के उच्च रिजोल्यूशन वाले डेटा पर आधारित इस अध्ययन के अनुसार, देश की 55 फीसदी 'तहसीलों' या सब-डिस्ट्रिक्ट में पिछले दशक (2012-2022) में बारिश में 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी दिखाई दे रही है। इसमें राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु कुछ भागों जैसे पारंपरिक रूप से सूखे क्षेत्रों की तहसीलें शामिल हैं। इनमें से लगभग एक-चौथाई तहसीलों में जून से सितंबर की अवधि के दौरान वर्षा में 30 प्रतिशत से अधिक की स्पष्ट बढ़ोतरी देखी जा रही है।
मंगलवार को सीईईडब्ल्यू में आयोजित कार्यशाला में सीईईडब्ल्यू के प्रोग्राम लीड डॉ. विश्वास चितले ने बताया कि अध्ययन में देश की 4,500 से अधिक तहसीलों में 40 वर्षों (1982-2022) के दौरान हुई बारिश का अपनी तरह का पहला सूक्ष्म विश्लेषण किया है। इससे पिछले दशक में तेजी से बदलने वाले और अनियमित मानसून पैटर्न की जानकारी सामने आई है। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले दशक में देश की सिर्फ 11 प्रतिशत तहसीलों में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी बारिश में कमी दिखाई दी है। ये सभी तहसीलें वर्षा आधारित सिंधु-गंगा के मैदान, पूर्वोत्तर भारत और ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हैं। ये क्षेत्र भारत के कृषि उत्पादन के लिए अति-महत्वपूर्ण हैं और जहां नाजुक पारिस्थितिकी-तंत्र मौजूद है, जो जलवायु की चरम घटनाओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है।
डॉ. चितले ने कहा कि बढ़ती अनियमित बारिश के पैटर्न को देखते हुए अर्थव्यवस्था को भविष्य में ऐसी घटनाओं के प्रभावों से सुरक्षित बनाने पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा। मानसून हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डालता है। सीईईडब्ल्यू का यह अध्ययन न केवल पूरे भारत में पिछले 40 वर्षों के दौरान दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी मानसून के उतार-चढ़ावों की जानकारी जुटाता है, बल्कि स्थानीय स्तर पर जोखिम के आकलन के लिए निर्णय-निर्माताओं को तहसील-स्तरीय बारिश की जानकारी उपलब्ध कराता है। मौसम की बढ़ती चरम घटनाओं को देखते हुए, अति-स्थानीय स्तर पर जलवायु जोखिमों का आकलन करना और कार्य योजनाएं बनाना भारत के लिए बहुत जरूरी है। उन्होंने बताया कि दक्षिण-पश्चिम मानसून से बारिश में कमी का सामना करने वाली तहसीलों में से 87 प्रतिशत, बिहार, उत्तराखंड, असम और मेघालय जैसे राज्यों में स्थित हैं। इन तहसीलों में जून-जुलाई के शुरुआती मानसूनी महीनों में बारिश में गिरावट देखी गई, जो कि खरीफ फसलों की बुआई के लिए महत्वपूर्ण होती है।
उन्होंने बताया कि पिछले दशक में तमिलनाडु की लगभग 80 प्रतिशत, तेलंगाना की 44 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश की 39 प्रतिशत तहसीलों में उत्तर-पूर्व मानसून से बारिश में 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी देखी गई। इसी अवधि में पूर्वी तट पर ओडिशा और पश्चिम बंगाल के साथ पश्चिमी तट पर महाराष्ट्र और गोवा में भी बारिश में बढ़ोतरी देखी गई है।
अंत में, भले ही भारत ने पिछले 40 वर्षों में 29 ‘सामान्य’ दक्षिण-पश्चिम मानसून देखे हों, लेकिन सीईईडब्ल्यू का अध्ययन दिखाता है कि इसका जिला या तहसील स्तर पर बहुत बारीकी से विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
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हिन्दुस्थान समाचार / विजयालक्ष्मी